मनुष्य की प्रधान विशेषता उसकी विचारशीलता है ।। इसी आधार पर
उसकी विचारणा, कल्पना, विवेचना, धारणा का विकास होता है ।। अन्य प्राणियों
की विचार परिधि पेट प्रजनन, आत्मरक्षा जैसे प्रयोजनों तक सीमित रहती है ।।
वे इसके आगे बढ़कर विश्व व्यवस्था, निजी जीवनचर्या, भावी संभावना आदि के
संबंध में कुछ सोच नहीं पाते, अधिक सुविधा पाने और प्रतिस्पर्द्धा का
आक्रमण करने जैसा आवेश भी यदाकदा उभरते रहते हैं ।। ज्यों- त्यों करके समय
बिताते हैं और नियतिक्रम के अनुसार मृत्यु के मुख में चले जाते हैं ।।
मनुष्य को भगवान ने ऐसा विकसित मनःसंस्थान दिया है, जिसके सहारे वह बहुत
कुछ सोच सकता है ।। भूतकालीन घटनाओं से अनुभव संपादित करता है, वर्तमान की
आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भरसक प्रयत्न करता है ।। भविष्य को अधिक
सुखद- समुन्नत बनाने के लिए भी प्रयत्न करता है, नीति, धर्म, समाज आदि के
संबंध में मर्यादाओं एवं परंपराओं का भी यथा अवसर पालन करता है ।। सहयोग
उसका विशेष गुण है, उसी आधार पर वह आदान प्रदान के आधार खड़े करता है और
सुविधाएँ संजोने प्रगति के आधार खड़े करने के लिए जो कुछ बन पड़ता है सो करता
है ।। इन्हीं मानसिक विशेषताओं के कारण उसमें संकल्पशक्ति, इच्छाशक्ति,
साहसिकता, तत्परता आदि विशेषताओं का अभिवर्धन हुआ है वह अन्य प्राणियों की
तुलना में अधिक सुविकसित बन सका है ।।
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