Saturday, 11 March 2017

महापुरुष-ईसा

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=224मानव-समाज की प्रगति का इतिहास, उत्थान और पतन के युगों की एक दीर्घ श्रृंखला की तरह है । ऐसा उदाहरण एक भी नहीं मिल सकता, जब कोई जाति या देश निरंतर उन्नति ही करता रहा हो, जिसकी अवस्था सदा वैभव-संपन्न और सुखी ही रही हो । ऐसा होना प्रकृति के काल-चक्र के नियमों के प्रतिकूल है । जब तक कोई जाति कठिनाइयों का विषम परिस्थितियों का सामना नहीं करती-तब तक उसमें दृढ़ता ,साहस, धैर्य, सहयोग, अध्यवसाय आदि ऐसे गुणों का प्रादुर्भाव नहीं होता, जिनके द्वारा संसार में वास्तविक अभ्युदय हो सकना और उसकी रक्षा कर सकना संभव होता है । प्राय: ऐसा भी देखने में आता है कि जब कोई जाति परिश्रम, अध्यवसाय और अनुकूल अवसर पा जाने से धन, सत्ता, वैभव की स्वामिनी हो जाती है तो कुछ समय बाद उसमें मद, अहंकार और पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष का भाव उत्पन्न हो जाता है और तब धीरे-धीरे वह जाति पतन की ओर अग्रसर होने लग जाती है ।

हमारे भारतवर्ष के इतिहास में इस प्रकार उत्थान और पतन के न मालूम कितने युग आ चुके है ? कभी चक्रवर्ती सम्राटों का आविर्भाव होकर यह संसार की संपत्ति, सभ्यता, सत्ता का केंद्र बन गया और कभी विदेशी, विजातीय लोगों के आक्रमणों से पददलित होकर अन्याय, अपहरण और दीनता का शिकार हुआ । यह समझना कि भारतवर्ष पर गत एक हजार वर्षो में केवल मुसलमानों और ईसाइयों के ही आक्रमण हुए .हैं, यह सही नहीं है । हम पौराणिक-साहित्य में जो दैत्यों. राक्षसों और असुरों के संग्रामों की कथाएँ पढ़ते हैं, उनमें से कितने ही ऐसे विदेशी आक्रमणकारी ही थे । 

 

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