जीवन देवता कि साधना आराधना-२
मानव जीवन एक संपदा के रूप में हम सबको मिला है । शारीरिक,
मानसिक एवं आत्मिक हर क्षेत्र में ऐसी-ऐसी अद्भुत क्षमताएँ छिपी पड़ी हैं कि
सामान्य बुद्धि से उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । यदि उन्हें विकसित
करने की विद्या अपनाई जा सके तथा सदुपयोग की दृष्टि पाई जा सके तो जीवन में
लौकिक एवं पारलौकिक संपदाओं एवं विभूतियों के ढेर लग सकते हैं।
परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि मनुष्य को मानवोचित ही नहीं, देवोपम जीवन जी
सकने योग्य साधन प्राप्त होते हुए भी, वह पशुतुल्य दीन-हीन जीवन इसलिए
जीता है कि वह जीवन को परिपूर्ण, सर्वांगपूर्ण बनाने के मूल तथ्यों पर न तो
ध्यान देता है और न उनका अभ्यास करता है । जीवन को सही ढंग से जीने की कला
जानना तथा कलात्मक ढंग से जीवन जीना ही जीवन जीने की कला कहलाती है व
आध्यात्मिक वास्तविक एवं व्यावहारिक स्वरूप यही है । अपने को श्रेष्ठतम
लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए सद्गुणों एवं सतवृत्तियों के विकास का जो अभ्यास
किया जाता है, उसी को जीवन-साधना कहते हैं। उसी को जीवनरूपी देवता की
साधना भी कह सकते हैं ।
जीवन-साधना नकद धर्म है । इसके प्रतिफल को प्राप्त करने के लिए किसी को
लंबे समय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती । "इस हाथ दे-उस हाथ ले" का नकद सौदा
इस मार्ग पर चलते हुए हर कदम पर फलित होता रहता है । जीवन- साधना यदि
तथ्यपूर्ण, तर्कसंगत और विवेकपूर्ण स्तर पर की गई हो तो उसका प्रतिफल दो
रूपों में हाथोहाथ मिलता चला जाता है । एक संचित पशु-प्रवृत्तियों से पीछा
छूटता है, उनका अभ्यास छूट जाता है एवं दूसरा लाभ यह होता है कि नर-पशु से
देवमानव बनने के लिए जो प्रगति करनी चाहिए उसकी व्यवस्था सही रूप से बन
पड़ती है । स्वयं को अनुभव होने लगता है कि व्यक्तित्व निरंतर उच्चस्तरीय बन
रहा है ।
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