मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले
संसार में चिरकाल से दो प्रचण्ड-धाराओं का संघर्ष होता चला आया
है। इसमें से एक की मान्यता है कि अपेक्षित साधनों की बहुलता से ही
प्रसन्नता और प्रगति सम्भव है। इसके विपरीत दूसरी विचारधारा यह है कि
मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। उसके आधार पर ही साधनों का
आवश्यक उपार्जन और सत्प्रयोजनों के लिए सदुपयोग बन पड़ता है। वह न हो, तो
इच्छित वस्तु पर्याप्त मात्रा में रहने पर भी अभाव और असन्तोष पनपता दीख
पड़ता है।
एक विचारधारा कहती है कि यदि मन को साध सँभाल लिया जाये, तो निर्वाह के
आवश्यक साधनों में कमी कभी नहीं पड़ सकती। कदाचित् पड़े भी, तो उस अभाव के
साथ संयम, सहानुभूति, सन्तोष जैसे सद्गुणों का समावेश कर लेने पर जो है,
उतने में ही भली प्रकार काम चल सकता है। कोई अभाव नहीं अखरता। दूसरी का
कहना है कि जितने अधिक साधन, उतना अधिक सुख। समर्थता और सम्पन्नता होने पर
दूसरे दुर्बलों के उपार्जन-अधिकार को भी हड़प कर मन चाहा मौज-मजा किया जा
सकता है।
दोनों के अपने अपने तर्क, आधार और प्रतिपादन हैं। प्रयोग भी दोनों का ही
चिरकाल से होता चला आया है, पर अधिकांश लोग अपनी-अपनी पृथक मान्यतायें
बनाये हुये चले आ रहे हैं। ऐसा सुयोग नहीं आया कि सभी लोग कोई सर्वसम्मत
मान्यता अपना सकें। अपने अपने पक्ष के प्रति हठपूर्ण रवैया अपनाने के कारण,
उनके बीच विग्रह भी खड़े होते रहते हैं। इसी को देवासुर संग्राम के नाम से
जाना जाता है। पदार्थ ही सब कुछ हैं-यह मान्यता दैत्य पक्ष की है। वह
भावनाओं को भ्रान्ति और प्रत्यक्ष को प्रामाणिक मानता है। देव पक्ष,
भावनाओं को प्रधान और पदार्थ को गौण मानता है। दर्शन की पृष्ठभूमि पर इसी
को भौतिकता और आध्यात्मिकता नाम दिया जाता है। हठवाद ने दोनों ही पक्षों को
अपनी ही बात पर अड़े रहने के लिए भड़काया है।
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