विवाहित जीवन का अलौकिक आनंद
आश्रम व्यवस्था हमारी देवोपम भारतीय संस्कृति का मूल आधार है ।
प्राचीन ऋषियों-मनीषियों ने गहन चिंतन-मनन के उपरांत मानवीय जीवन का चार
भागों में विभाजन किया था । सौ वर्ष के आदर्श जीवन काल को २५-२५ वर्ष के
चार खंडों में, चार आश्रमों में बांट दिया था । पहला ब्रह्मचर्य फिर गृहस्थ
और पचास वर्ष की आयु पर वानप्रस्थ तथा अंतिम संन्यास आश्रम की व्यवस्था की
गई थी । इसके अनुसार पहले २५ वर्षो में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए
शारीरिक एवं मानसिक रूप से अपने को परिपुष्ट बनाया जाता था । इसके बाद
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके परिवार, समाज व राष्ट्र की सेवा करने का विधान
था । वानप्रस्थ व संन्यास आश्रमों में लोक कल्याण की साधना करते हुए समाज
में चतुर्दिक सुख-शांति का वातावरण निर्मित करने के सतत प्रयास में मानव
जी-जान से जुटा रहता था ।
इस व्यवस्था पर यदि गंभीरतापूर्वक विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि
ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रमों का उद्देश्य यही है कि
गृहस्थाश्रम को सुचारु रूप से: व्यवस्थित समुत्रत और सुख शांति से परिपूर्ण
बनाया जाए । इसका एक पक्ष यह भी है कि गृहस्थाश्रम के ऊपर ही शेष तीनों
आश्रमों के समुचित पालन-पोषण करने का दायित्व भी है । इसी कारण गृहस्थाश्रम
को चारों में सबसे महत्वपूर्ण कहा गया है ।
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