क्या मनुष्य सचमुच सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ?
वह क्षण निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा होगा जब मनुष्य ने अपने
आपको सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार पाल लिया ।। क्योंकि इस स्थिति में मनुष्य
ने विश्व- वसुधा के, सृष्टि- परिवार के अन्यान्य प्राणियों को हीन और हेय
मान लिया ।। सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी समझने की अहमन्यता मनुष्य में
किसी भी कारण से विकसित हुई हो, लेकिन यह सत्य है कि उसने अपने इस
पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर निरीह प्राणियों का शोषण और मनचाहा उत्पीड़न
किया ।। अपनी अहंमन्यता को उसने संसार के दूसरे प्राणियों पर जिस ढंग से
थोपा उनकी प्रतिक्रिया- परिणति स्वय उसके लिये ही उलटा सिद्ध हुआ है।। जो
दाँव उसने मनुष्येतर प्राणियों पर चलाया था, वह धीरे- धीरे उसके स्वभाव का
अंग बन गया और अब वह यही प्रयोग अपनी जाति पर भी अपनाने लगा है ।। परिणाम
यह हो रहा है कि मानवीय संवेदना धीरे- धीरे घटती जा रही है तथा वैयक्तिक
सुख- स्वार्थ के लिए शोषण और अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं ।। इस स्थिति को
व्यक्ति- व्यक्ति के बीच परिवार- परिवार के बीच जातियों, समुदायों और
विभिन्न राष्ट्रों के बीच खींचतान के रुप में स्पष्ट देखा जा सकता है ।।
होना यह चाहिए था कि मनुष्य अपनी सर्वश्रेष्ठता की अहंमन्यता नहीं पालता और
सभी प्राणियों को जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखता ।। उनकी अनंत क्षमताओं से
कुछ सीखने का प्रयत्न करता ।। कदाचित् ऐसा हुआ होता तो स्थिति कुछ और ही
होती ।। वह अपने सहचर पशु पक्षियों को देखता, यह जानता कि प्रकृति ने
उन्हें भी कितने लाड़- दुलार से सजाया संवारा है तो उसका हृदय और भी विशाल
बनता तथा चेतना का स्तर और ऊँचा उठता ।। इस स्थिति में प्रतीत होता कि
अभागे कहे जाने वाले इन जीवों को भी प्रकृति से कम नहीं, मनुष्य की अपेक्षा
कहीं अधिक ही उपहार मिले हैं ।।
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