Thursday, 27 April 2017
देव संस्कृति व्यापक बनेगी सीमित न रहेगी
देव संस्कृति व्यापक बनेगी सीमित न रहेगी
भारतीय संस्कृति- देव संस्कृति- भारत मात्र एक राष्ट्र नहीं, मानवी उत्कृष्टता एवं संस्कृति का उद्गम केंद्र है ।। हिमालय के शिखरों पर जमी बरफ जलधारा बनकर बहती है और सुविस्तृत धरातल को सरसता एवं हरीतिमा से भरती है ।। भारत धर्म और अध्यात्म का उदयाचल है,जहाँ से सूर्य उगता और समस्त भूमंडल को आलोक से भरता है ।। एक तरह से यह आलोक- प्रकाश ही जीवन है, जिसके सहारे वनस्पतियाँ उगतीं, घटाएँ बरसतीं और प्राणियों में सजीव हलचलें होती हैं ।।
बीज में वृक्ष की समस्त विशेषताएँ सूक्ष्म रूप में छिपी पड़ी होती हैं ।। परंतु ये स्वत: विकसित नहीं हो पातीं ।। उन्हें अंकुरित, विकसित करके विशाल बनाने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं ।। ठीक यही बात मनुष्य के संबंध में है ।। स्रष्टा ने उसे सृजा तो अपने हाथों से है और उसे असीम संवेदनाओं से परिपूर्ण भी बनाया है, पर साथ ही इतनी कमी भी छोड़ी है कि विकास के प्रयत्न बन पड़े तो ही उसे ऊँचा उठाने का अवसर मिलेगा ।। स्पष्ट है कि जिन्हें सुसंस्कारिता का वातावरण मिला, वे प्रगति पथ पर अग्रसर होते चले गए ।। जिन्हें उससे वंचित रहना पड़ा वे अभी भी वन्य प्राणियों की तरह रहते और गयी- बीती परिस्थितियों में समय गुजारते हैं ।। इस प्रगतिशीलता के युग में भी ऐसे वनमानुषों की कमी नहीं, जिन्हें बंदर की औलाद ही नहीं, उसकी प्रत्यक्ष प्रतिकृति भी कहा जा सकता है ।। यह पिछड़ापन और कुछ नहीं, प्रकारांतर से संस्कृति का प्रकाश न पहुँच सकने के कारण उत्पन्न हुआ अभिशाप भर है
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इक्कीसवी सदी का संविधान
Preface
युग निर्माण जिसे लेकर गायत्री परिवार अपनी निष्ठा और तत्परतापूर्वक अग्रसर हो रहा है, उसका बीज सत्संकल्प है । उसी आधार पर हमारी सारी विचारणा, योजना, गतिविधियाँ एवं कार्यक्रम संचालित होते हैं, इसे अपना घोषणा-पत्र भी कहा जा सकता है । हम में से प्रत्येक को एक दैनिक धार्मिक कृत्य की तरह इसे नित्य प्रातःकाल पढ़ना चाहिए और सामूहिक शुभ अवसरों पर एक व्यक्ति उच्चारण करे और शेष लोगों को उसे दुहराने की शैली से पढा़ एवं दुहराया जाना चाहिए ।संकल्प की शक्ति अपार है । यह विशाल ब्रह्मांड परमात्मा के एक छोटे संकल्प का ही प्रतिफल है । परमात्मा में इच्छा उठी एकोऽहं बहुस्याम मैं अकेला हूँ-बहुत हो जाऊँ, उस संकल्प के फलस्वरूप तीन गुण, पंचतत्त्व उपजे और सारा संसार बनकर तैयार हो गया । मनुष्य के संकल्प द्वारा इस ऊबड़- खाबड़ दुनियाँ को ऐसा सुव्यवस्थित रूप मिला है । यदि ऐसी आकांक्षा न जगी होती, आवश्यकता अनुभव न होती तो कदाचित् मानव प्राणी भी अन्य वन्य पशुओं की भाँति अपनी मौत के दिन पूरे कर रहा होता ।
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सामाजिक नैतिक बोद्धिक क्रान्ति कैसे-६५
आज का मनुष्य अधिक सुविधा व साधन सम्पन्न है ।। इतना अधिक कि २०० वर्ष पूर्व का मनुष्य कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था ।। वैज्ञानिक क्रान्ति व आर्थिक क्रान्ति ने साधनों के अम्बार जुटा दिये हैं, फिर भी मनुष्य पहले की तुलना में स्वयं को अभावग्रस्त, रुग्ण, चिन्तित व एकाकी ही अनुभव कर रहा है ।। सुख- सन्तोष की दृष्टि से वह पहलें की अपेक्षा और अधिक दीन- दुर्बल हो गया है ।। शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, नैतिक विकास, पारिवारिक सौजन्य, सामाजिक- सद्भाव, आर्थिक संतोष व आंतरिक उल्लास की दृष्टि से मनुष्य जाति समग्र विश्व में नई- नई समस्याओं से घिर गयी है ।। परमपूज्य गुरुदेव इन सभी समस्याओं के मूल में उलटी बुद्धि का नट नृत्य ही देखते हैं ।। दुर्गतिजन्य दुर्गति ही चारों ओर दिखाई देती है एवं यह दुर्बुद्धि भावनात्मक स्तर पर एक विचार क्रान्ति के बिना ठीक होगी नहीं, यह उनका वाड्मय के इस खण्ड में अभिमत है ।।
विचारों में अपार शक्ति छिपी पड़ी है ।। विचारशीलता एवं विवेकशीलता विकसित की जा सके तो तथाकथित शिक्षा में प्राण डाले जा सकते हैं एवं व्यक्ति को विद्या रूपी संजीवनी द्वारा मूर्च्छना से उबारा जा सकता है ।। गायत्री परिवार का यही लक्ष्य बताते हुए बारबार युगद्रष्टा आचार्यश्री ने लिखा है कि, बिना एक व्यापकस्तरीय विचार क्रान्ति के इस राष्ट्र का ही नहीं, सारी विश्व- वसुधा का सामाजिक, नैतिक व बौद्धिक स्तर पर नवनिर्माण सम्भव नहीं ।। गायत्री एवं यज्ञ के तत्वदर्शन को इसके लिए अनिवार्य बताते हुए उनने जन- जन तक सद्बुद्धि व सद्कर्म का संदेश पहुँचाने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है ।।
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भव्य समाज का अभिनव निर्माण - 46
धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियों के अवतरण में समाज व्यवस्था की प्रमुख भूमिका होती है । जनसमाज की मान्यताएँ, गतिविधियाँ, प्रथाएँ जिस स्तर की होती हैं, उसी प्रवाह में सामान्यजन बहते और ढलते जाते हैं । अनुकरणप्रिय मनुष्य का स्तर और रुझान प्राय: सामयिक प्रचलन एवं परिस्थितियों के अनुरूप बनता चला जाता है । यदि उनका स्तर उच्चस्तरीय हो तो व्यक्ति एवं समुदाय का चिन्तन भी उसी के अनुरूप ढलेगा और समाज में स्वर्गीय परिस्थितियाँ पैदा होंगी । जिस समाज में ऐसे लोगों का बाहुल्य होता है, जो परस्पर एक-दूसरे के दु:ख-दर्द में सम्मिलित रहते हैं, दु:खो को बँटाते, सुखों को बाँटते हैं और उदार सहयोग-सहकार का, स्नेह-सौजन्य का, त्याग का परिचय देकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं, उसे "देव समाज" कहते हैं । जब-जब जन-समूह इस प्रकार का सम्बन्ध बनाये रखता है तब -तब स्वर्गीय परिस्थितियाँ वहाँ विद्यमान रहती हैं । परमपूज्य गुरुदेव ने ऐसे ही सभ्य, भव्य एवं अभिनव समाज की परिकल्पना की है और कहा है कि आने वाले दिनों में व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया गतिशील होगी । संकीर्ण स्वार्थपरता-परमार्थ परायणता में बदलेगी और धरती पर स्वर्ग के दर्शन होंगे ।
परमपूज्य गुरुदेव का यह आशावादी चिंतन वाड्मय के इस खण्ड में स्थान-स्थान पर निर्झरित होता हुआ प्रकट हुआ है । "वसुधैव कुटुम्बकम्" के सिद्धान्त के आधार पर "नया संसार बसायेंगे-नया इंसान बनायेंगे!" का उद्घोष करने वाले युग प्रवर्तक एवं महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के सूत्रधार परमपूज्य गुरुदेव ने अन्यान्य अध्यात्मवादी तत्वदर्शकों, चिंतक मनीषियों की तुलना में सशक्त समाज के निर्माण की आवश्यकता को एवं श्रेष्ठ मानकों की भूमिका को स्थान-स्थान पर दुहराया है ।
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गायत्री की युगांतरीय चेतना
यों मनुष्य के पास प्रत्यक्ष सामर्थ्यों की कमी नहीं है और उनका
सदुपयोग करके वह अपने तथा दूसरों के लिए बहुत कुछ करता है, किन्तु उसकी
असीम सामर्थ्य को देखना हो तो मानवी चेतना के अन्तराल में प्रवेश करना होगा
।। व्यक्ति की महिमा को बाहर भी देखा जा सकता है पर गरिमा का पता लगाना हो
तो अन्तरंग ही टटोलना पड़ेगा ।। इस अन्तरंग को समझने उसे परिष्कृत एवं
समर्थ बनाने, जागृत अन्तःसमता का सदुपयोग कर सकने के विज्ञान को ही
ब्रह्मविद्या कहते हैं ।। ब्रह्मविद्या के कलेवर का बीज- सूत्र गायत्री को
समझा जा सकता है ।। प्रकारान्तर से गायत्री को मानवी गरिमा के अन्तराल में
प्रवेश पा सकने वाली और वहाँ जो रहस्यमय है उसे प्रत्यक्ष में उखाड़ लाने की
सामर्थ्य को गायत्री कह सकते हैं ।। नवयुग के सृजन में सर्वोपरि उपयोग इसी
दिव्य शक्ति का होगा ।। मनुष्य की बहिरंग सत्ता को भी कई तरह की सामर्थ्य
प्राप्त है पर वे सभी सीमित होती हैं और अस्थिर भी ।। सामान्यतया सम्पत्ति,
बलिष्ठता शिक्षा, प्रतिभा, पदवी अधिकार जैसे साधन ही वैभव में गिने जाते
हैं और इन्हीं के सहारे कई तरह की सफलताएँ भी सम्पादित की जाती हैं ।। इतने
पर भी इनका परिणाम सीमित ही रहता है और इसके सहारे व्यक्तिगत वैभव सीमित
मात्रा में ही उपलब्ध किया जा सकता है ।। भौतिक सफलताएँ मात्र अपने
पुरुषार्थ और साधनों के सहारे ही नहीं मिल जाती वरन् उनके लिए दूसरों की
सहायता और परिस्थितियों की अनुकूलता पर भी निर्भर रहना पड़ता है ।।
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Listen To Mahakal Call
The expectation of this eras rishi Read my thoughts" and spread their dynamic sparks among the people. Understand the principles of the realities of life. Come out of imaginary life. Spread my thinking among the near ones. My thoughts are very sharp. My claim that I will turn the world around is not made on the basis of magic powers but on the basis of my powerful thoughts. The whole world is my field of work. For the development of individuals, society, country and the spread of religion and culture and for world-peace, you should make every person read these thoughts. If you do this, then it is my claim that the era will be definitely transformed.
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समयदान ही युग धर्म
—दान अर्थात् देना; ईश्वर प्रदत्त क्षमताओं को जागृत विकसित करना
और उससे औरों को भी लाभ पहुँचाना। यही है पुण्य परमार्थ- सेवा स्वर्गीय
परिस्थितियाँ इसी आधार पर बनती हैं।
लेना- बटोरना के अधिकार का अपहरण करना, यही पाप है, इसी की प्रतिक्रिया का अलंकारिक प्रतिपादन है नर्क।
— यहाँ समस्त महामानव मात्र एक ही अवलंबन अपनाकर उत्कृष्टता के प्रणेता बन सके हैं, कि उन्होंने संसार में जो पाया, उसे प्रतिफल स्वरूप अनेक गुना करके देने का व्रत निबाहा।
धनदान तो एक प्रतीक मात्र है। उसका तो दुरुपयोग भी हो सकता है, प्रभाव विपरीत भी पड़ सकता है। वास्तविक दान प्रतिभा का है, धन साधन उसी से उपजते हैं। प्रतिभादान- समयदान से ही संभव है। यह ईश्वर प्रदत्त संपदा सबके पास समान रूप से विद्यमान है।
— वस्तुतः: समयदान तभी बन पड़ता है, जब अंतराल की गहराई में, आदर्शों पर चलने के लिए बेचैन करने वाली टीस उठती हो।
— यह असाधारण समय है। तत्काल निर्णय और तीव्र क्रियाशीलता उसी प्रकार आवश्यक है जैसी कि आग बुझाने या ट्रेन छूटने के समय होते है। हनुमान, बुद्ध, समर्थ गुरु रामदास, विवेकानन्द आदि ने समय आने पर शीघ्र निर्णय न लिए होते, तो ये उस गौरव से वंचित ही रह जाते, जो उन्हें प्राप्त हो गया।
— महात्मा ईसा ने ठीक ही कहा है, ‘‘शीघ्र कार्य यदि बाएँ हाथ की पकड़ में आता है तो भी तुरंत पकड़ो। बाएँ से दाएँ का संतुलन बनाने जितने थोड़े- से समय में ही कहीं शैतान बहका न ले ..........। ’’
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युग परिवर्तन इस्लामी दृष्टिकोण
यह युग परिवर्तन का अति महत्वपूर्ण समय है ।। युग परिवर्तन का
अर्थ है- ईश्वरीय योजना के अन्तर्गत मनुष्य मात्र के लिये उज्वल भविष्य का
निर्माण ।। ऐसा युग जिसे सनातन धर्म में ' सतयुग ' की संज्ञा दी जाती रही
है ।। इस सम्बन्ध में सैकड़ों साल पहले महात्मा, सूरदास, फ्रांस के प्रसिद्ध
भविष्यवक्ता नेस्ट्राडेमस, महात्मा वहाउल्ला, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि
अरविन्द आदि ने महत्वपूर्ण संकेत दिए हैं ।। उक्त महापुरुषों के कथन को
सार्थक करते हुए युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
ने इसकी समग्र और व्यवस्थित कार्य योजना घोषित करके इस हेतु एक विश्वव्यापी
अभियान ' युग निर्माण ' के नाम से प्रारंभ कर दिया ।। इसमें उन्होंने
विश्व समाज के सभी पक्षों की भागीदारी आवश्यक बतलाई
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Wednesday, 26 April 2017
युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २
बड़े कामों को बड़े शक्ति केंद्र ही संपन्न कर सकते हैं। दलदल
में फँसे हाथी को बलवान् हाथी ही खींचकर पार करा पाते हैं। पटरी से उतरे
इंजन को समर्थ क्रेन ही उठाकर यथास्थान रखती है। उफनते समुद्र में नाव खेना
साहसी नाविकों से ही बन पड़ता है। आज के समाज व संसार की बड़ी समस्याओं को
हल करने के लिए स्रष्टा को भी वरिष्ठ स्तर की परिष्कृत प्रतिभाओं की
आवश्यकता पड़ती है। प्रतिभाएँ ऐसी संपदाएँ हैं, जिनसे न केवल वे स्वयं
भरपूर श्रेय अर्जित करते हैं, वरन् अपने क्षेत्र- समुदाय और देश की अति
विकट दीखने वाली उलझनों को भी सुलझाने में वे सफल होते हैं। इसी कारण
इन्हें देवदूत- देवमानव कहा जाता है।
इन दिनों असंतुलन में बदलने के लिए महाकाल की एक बड़ी योजना बन रही है। यह कार्य आदर्शवादी सहायकों में उमंगों को उभारकर उन्हें एक सूत्र में आबद्ध करने से लेकर नियमित सृजनात्मक गतिविधियों- सत्प्रवृत्तियों का मोरचा अनीति- दुष्प्रवृत्ति के विरुद्ध खड़े करने के रूप में आरंभ हो चुका है। इससे वह महाजागरण की प्रक्रिया होगी जो प्रतिभाओं की मूर्च्छना हटाएगी, उन्हें एकाकी आगे बढ़ाकर अग्रगमन की क्षमता का प्रमाण देने हेतु प्रेरित करेगी। नवयुग का अरुणोदय निकट है। सतयुग की सुनिश्चित संभावनाएँ बन रही हैं। प्रतिभा के धनी ही इस लक्ष्य को पूरा कर दिखाएँगे।
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युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग १
भगवत्सत्ता का निकटतम और सुनिश्चित स्थान एक ही है, अंतराल में
विद्यमान प्राणाग्नि। उसी को जानने- उभारने से वह सब कुछ मिल सकता है, जिसे
धारण करने की क्षमता मनुष्य के पास है। प्राणवान् प्रतिभा संपन्नों में उस
प्राणाग्नि का अनुपात सामान्यों से अधिक होता है। उसी को आत्मबल- संकल्पबल
भी कहा गया है।
पारस को छूकर लोहा सोना बनता भी है या नहीं ? इसमें किसी को संदेह हो सकता है, पर यह सुनिश्चित है कि महाप्रतापी- आत्मबल संपन्न व्यक्ति असंख्यों को अपना अनुयायी- सहयोगी बना लेते हैं। इन्हीं प्रतिभावानों ने सदा से जमाने को बदला है- परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाई है। प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह तो अंदर से जागती है। सवर्णों को छोड़कर वह कबीर और रैदास को भी वरण कर सकती है। बलवानों, सुंदरों को छोड़कर गाँधी जैसे कमजोर शरीर वाले व चाणक्य जैसे कुरूपों का वरण करती है। जिस किसी में वह जाग जाती है, साहसिकता और सुव्यवस्था के दो गुणों में जिस किसी को भी अभ्यस्त- अनुशासित कर लिया जाता है, सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल जाता है। प्रतिभा- परिष्कार -तेजस्विता का निखार आज की अपरिहार्य आवश्यकता है एवं इसी आधार पर नवयुग की आधारशिला रखी जाएगी।
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नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी
अशुभ समय संसार के इतिहास में अनेक बार आते रहे हैं, पर स्रष्टा
का यह नियम है कि वह अनौचित्य को सीमा से बाहर बढ़ने नहीं देता। स्रष्टा का
आक्रोश तब उभरता है, जब अनाचारी अपनी गतिविधियाँ नहीं छोड़ते और पीडित
व्यक्ति उसे रोकने के लिए कटिबद्ध नहीं होते। यदा- यदा हि धर्मस्य वाली
प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए स्रष्टा वचनबद्ध है।
युगसंधि के दस वर्ष दोहरी भूमिकाओं से भरे हुए हैं। प्रसव जैसी स्थिति होगी। प्रसवकाल में जहाँ एक ओर प्रसूता को असह्य कष्ट सहना पड़ता है, वहाँ दूसरी ओर संतानप्राप्ति की सुंदर संभावनाएँ भी मन- ही पुलकन उत्पन्न करती रहती हैं। जिसमें मनुष्य शांति और सौजन्य के मार्ग पर चलना सीखे, कर्मफल की सुनिश्चित प्रक्रिया से अवगत हो और वह करे, जो करना चाहिए, उस राह पर चले, जिस पर कि बुद्धिमान को चलना चाहिए।
शान्तिकुञ्ज से उभर रहे एक छोटे प्रवाह ने नवयुग के अनुरूप प्रशिक्षण की ऐसी व्यवस्था बनाई है, जो कि उसके साधनों को देखते हुए संभव नहीं थी। ऐसी सिद्धान्त शैली और तर्क प्रक्रिया शान्तिकुञ्ज ने प्रस्तुत की है, जिससे लोकमान्यता में असाधारण परिवर्तन देखे जा सकते हैं। इन दिनों मानव- शरीर में प्रतिभावान देवदूत प्रकट होने जा रहे हैं। लोकमानस का परिष्कार कर वे नवयुग की संभावना सुनिश्चित करेंगे- निश्चित ही बड़भागी बनेंगे।
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नवयुग का मत्स्यावतार

ब्रह्मा जी प्रात:काल संध्या-वन्दन के लिए बैठे। चुल्लू में आचमन
के लिए पानी लिया। उसमें छोटा सा कीड़ा विचरते देखा। ब्रह्माजी ने सहज
उदारतावश उसे जल भरे क मण्डल में छोड़ दिया और अपने क्रिया-कृत्य में लग
गए। थोड़े ही समय में वह कीड़ा बढ़कर इतना बड़ा हो गया कि सारा क मण्डल ही
उससे भर गया। अब उसे अन्यत्र भेजना आवश्यक हो गया। उसे समीपवर्ती तालाब में
छोड़ा गया। देखा गया कि वह तालाब भी उस छोटे से कीड़े के विस्तार से भर
गया। इतनी तेज प्रगति और विस्तार को देखकर वे स्वयं आश्चर्यचकित हुए और एक
दो बार इधर-उधर उठक-पटक करने के बाद उसे समुद्र में पहुँचा आए। आश्चर्य यह
कि संसार भर का जल थल क्षेत्र उसी छोटे कीड़े के रूप में उत्पन्न हुई मछली
ने घेर लिया।
इतना विस्तार आश्चर्यजनक, अभूतपूर्व, समझ में न आने योग्य था।
जीवधारियों की कुछ सीमाएँ, मर्यादाएँ होती है, वे उसी के अनुरूप गति पकड़ते
हैं, पर यहाँ तो सब कुछ अनुपम था। ब्रह्माजी जिनने उस मछली की जीवन-रक्षा
और सहायता की थी, आश्चर्यचकित रह गए। बुद्धि के काम न देने पर वे उस
महामत्स्य से पूछ ही बैठे कि यह सब क्या हो रहा है? मत्स्यावतार ने कहा-मैं
जीवधारी दीखता भर हूँ, वस्तुत: परब्रह्म हूँ। इस अनगढ़ संसार को जब भी
सुव्यवस्थित करना होता है, तो उस सुविस्तृत कार्य को सम्पन्न करने के लिए
अपनी सत्ता को नियोजित करता हूँ। तभी अवतार प्रयोजन की सिद्धि बन पड़ती है।
ब्रह्मा जी और महामत्स्य आपस में वार्तालाप करते रहे। सृष्टि को नई
साज-सज्जा के साथ सुन्दर-समुन्नत करने की योजना बनाकर, उस निर्धारण की
जिम्मेदारी ब्रह्मा जी को सौंपकर, वे अन्तर्ध्यान हो गए और वचन दे गए कि जब
कभी अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलने की आवश्यकता पड़ेगी, उसे सम्पन्न
करने के लिए मैं तुम्हारी सहायता करने के लिए अदृश्य रूप में आता रहूँगा।
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A GLIMPSE OF THE GOLDEN FUTURE
As a futurologist, Acharyashri has demonstrated unique ability to predict the future. During the last decade, when the cold war was at its zenith, he had accurately presaged about the impossibility of a third world war, nuclear non-proliferation and failure of the star-war program. Some of his predictions of global importance that have come true are highlighted in the Chapter 1 of this booklet. Chapters 2 and 3 present translations of some of his published works pertaining to the changes in the world map, socio-economic order and advent of a Golden Era in the 21st Century.
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Tuesday, 25 April 2017
युग निर्माण योजना- दर्शन ,स्वरुप व कार्यक्रम -66
सूक्ष्मजगत की दिव्य-प्रेरणा से उद्भूत संकल्प ही युग निर्माण योजना के रूप में जाना जाता है । व्यक्ति के चिंतन-चरित्र-व्यवहार में बदलाव, व्यक्ति से परिवार एवं परिवार से समाज का नवनिर्माण तथा समस्त विश्व-वसुधा एवं इस जमाने का, युग का, एक एरा का नवनिर्माण स्वयं में एक अनूठा अभूतपूर्व कार्यक्रम है, जिसकी संकल्पना परमपूज्य गुरुदेव द्वारा की गई एवं अमली जामा पहनाया गया । यही युग निर्माण की प्रक्रिया परमपूज्य गुरुदेव के नवयुग के समाज, भावी सतयुग के आगमन की घोषणा का मूल आधार बनी । इसी का विवेचन विस्तार से प्रस्तुत वाङ्मय में हुआ है ।
परमपूज्य गुरुदेव इसका शुभारंभ मथुरा में आयोजित १९५८ के सहस्रकुंडी गायत्री महायज्ञ से हुआ बताते हैं, जिसमें धर्म-तंत्र के माध्यम से लोकमानस को विचार-क्रांति प्रक्रिया के प्रवाह में ढालने की घोषणा कर विधिवत् गायत्री परिवार अथवा युग निर्माण मिशन की स्थापना कर दी गई थी । इसका स्वरूप उनने इस प्रकार बनाया कि इस विचारधारा का समर्थन करने वाले सहायक सदस्य, प्रतिदिन एक घंटा व दस पैसा (बाद में बीस पैसा अथवा एक दिन की आजीविका) नित्य देने वाले सक्रिय सदस्य, प्रतिदिन चार घंटे युग परिवर्तन आंदोलन के लिए समर्पण करने वाले कर्मठ कार्यकर्त्ता एवं आजीवन अपना समय लोक-सेवा के निमित्त लगाने वाले लोकसेवी-वानप्रस्थ-परिव्राजक कहलाएँगे । आत्म-निर्माण, परिवार-निर्माण, समाज-निर्माण की त्रिविध कार्यपद्धति इस मिशन की बनाई गई । स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन एवं सभ्य समाज की अभिनव रचना की धुरी पर सारे प्रयासों को नियोजित किया गया । बौद्धिक नैतिक सामाजिक क्रांति की आधारशिला पर तथा प्रचारात्मक रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रमों की सुव्यवस्थित नीति पर युग निर्माण का सारा ढाँचा बनाया गया ।
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युग -परिर्वतन कैसे और कब ? -27
सभी एक स्वर से यह कह रहे हैं कि प्रस्तुत वेला युग परिवर्तन की
है। इन दिनों जो अनीति व आराजकता का साम्राज्य दिखाई पड़ रहा है, इन्हीं का
व्यापक बोलबाला दिखाई दे रहा है, उसके अनुसार परिस्थितियों की विषमता अपनी
चरम सीमा पर पहुँच गयी है। ऐसे ही समय में भगवान ‘‘यदा-यदा हि धर्मस्य’’
की प्रतिज्ञा के अनुसार असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए कटिबद्ध हो
‘‘संभवामि युगे युगे’’ की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए आते रहे हैं।
ज्योतिर्विज्ञान प्रस्तुत समय को जो 1850 ईसवीं सदी से आरम्भ होकर 2005
ईसवी सदी में समाप्त होगा—संधि काल, परिवर्तन काल, कलियुग के अंत तथा सतयुग
के आरम्भ का काल मानता चला आया है।
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Revival Of Satyug
In His vast creation, God has bestowed the human species with
some unique privileges. Amongst the innumerable creatures, man is the
only one capable of having instinctive compassion for the fellow beings.
Barring a few self centred human beings, for whom besides their own
existence, no matter or event is of any consequence; a normal man is
instinctively moved by human miseries like floods, earthquakes and
famines etc. On such occasions, empathy implores some individuals to
contribute their best to alleviate the situation and a super human is
born. History abounds in such examples. The well known first ever
Sanskrit poet, Valmiki was inspired to his first verse by an injured
wailing curlew bird. Heaps of carcasses of the brutally annihilated
sages compelled Lord Ram to take a pledge for. deliverance of the earth
from the marauders.
The climax of human evolution may be considered as the stage where the field of empathy becomes so pervasive as to encompass the entire biological kingdom.
The human race has failed to utilise its prudence, caution and intelligence in fruitful utilisation of the gains.
The big question is, "Are we heading towards a total extinction ?" Certainly not. There is a ray of hope.
Nature has not gifted man with higher status for wasting his superior calibre.... for accumulation and utilisation of resources. He has been assigned some higher goals by the Almighty.
The period preceeding the golden age of twenty-first century expects everyone to contribute earnestly towards inculcating sentient consciousness and empathy in fellow beings. There is little doubt that through the efforts of all dedicated persons humanity will regain its happiness and lost virtues.
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Change Of Thoughts Change Of Era
Apparently, what a man seems doing, what the society appears
as a whole is only the reflection of contemporary ideologies embedded in
that. Beliefs and recognitions originate in the inner self in the shape
of motivation, desire and all the activities are their repercussion.
Everything a man seems doing is simply the outcome of those beliefs
deeply seated in his conscience. The different life styles and
activities among different persons and societies, is the result of
diversity embedded in their beliefs. Virtues and values, that one is
adhered to, control every persons activities.
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21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
The past three centuries have been witness to miraculous
discoveries in material sciences and application thereof in improving
the physical quality of life. Unfortunately, because of their improper
applications, many of these scientific achievements have proved to be
disastrous for humanity, Consequently, modem man finds himself living in
much more distressful and stress-phone environment than his less
affluent ancestors. Universal problems like environmental pollution,
increasing radioactivity, global warming, nuclear and chemical
proliferation of armaments are creating an environment in which the very
existence of human race is at stake. Who would then appreciate science
and technology which lead to the melting of polar Icelands, disastrous
upheavals in the oceans of the world, return of the ice-ages and
destruction of this beautiful planet by the ultraviolet radiations
penetrating through the holes in the ozone layers protecting the earth?
It is too enormous a price to pay for the life debasing comforts and
capabilities provided by the advancement in science and technology?
Is not it the devilish misuse of scientific advancement and scores of local and regional conflicts which has resulted in two world wars causing enormous loss of life and resources in this very century? Man is today mercilessly exploiting the mineral resources of the earth. He is per-paring for star-wars which would obliterate all life on the earth.
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Monday, 24 April 2017
सरस-सफल जीवन का केंद्रबिन्दु उत्कृष्ट चिंतन
मनुष्य के हृदय भंडार का द्वार खोलने वाली, निम्नता से उच्चता की
ओर ले जाने वाली, गुणों का विकास करने वाली, यदि कोई वस्तु है तो
प्रसन्नता ही है ।। यही वह साँचा है जिसमें ढलकर मनुष्य अपने जीवन का
सर्वतोमुखी विकास कर सकता है ।। जीवन यापन के लिए जहाँ उसे धन, वस्त्र,
भोजन एवं जल की आवश्यकता पड़ती है वहाँ उसे हल्का- फुल्का एवं प्रगतिशील
बनाने के लिए प्रसन्नता भी आवश्यक है ।। प्रसन्नता मरते हुए मनुष्य में
प्राण फूँकने के समान है ।। प्रसन्न और संतुष्ट रहने वाले व्यक्तियों का ही
जीवन किरण बनकर दूसरों का मार्ग दर्शन करने में सक्षम होता है ।।
प्रसिद्ध दार्शनिक इमर्सन ने कहा है “ वस्तुत: हास्य एक चतुर किसान है जो मानव जीवन पथ के कांटों, झाड़- झंखाड़ों को उखाड़ कर अलग करता है और सदगुणों के सुरभित वृक्ष लगा देता है जिसमें जीवन यात्रा एक पर्वोत्सव बन जाती है ।। "
जीवन यात्रा के समय में मनुष्य को अनेक कठिनाइयों एवं समस्याओं का सामना करना पड़ता है, किंतु इसी का अमृत का पान कर मनुष्य जीवन संग्राम में हँसते- हँसते विजय प्राप्त कर सकता है ।। इतिहास के पृष्ठों पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि महान व्यक्तियों के संघर्षपूर्ण जीवन की सफलता का रहस्य प्रसन्नता रूपी रसायन का अनवरत सेवन करते रहना ही है ।।
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सभ्य समाज की अभिनव संरचना में जुटें
जिस समाज में लोग एक -दूसरे के दु:ख -दर्द में सम्मिलित रहते हैं
, सुख- संपति को बाँटकर रखते हैं और परस्पर स्नेह, सौजन्य का परिचय देते
हुए स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं उसे देव
समाज कहते हैं। जब जहाँ जनसमूह इस प्रकार पारस्परिक संबंध बनाए रहता है तब
वहाँ स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनी रहती हैं ।। पर जब कभी लोग न्याय -अन्याय
का, उचित- अनुचित का , कर्त्तव्य -अकर्त्तव्य का विचार छोड़कर उपलब्ध
सुविधा या सत्ता का अधिकाधिक प्रयोग स्वार्थ में करने लगते हैं तब क्लेश
,द्वेश और असंतोष की प्रबलता बढ़ ने लगती है। शोषण और उत्पीड़न का बाहुल्य
होने से वैमनस्य और संघर्ष के दृश्य दिखाई पड़ने लगते हैं।
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संस्कृति पुरुष हमारे गुरुदेव

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Friday, 21 April 2017
विचार क्रांति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप
मनुष्य को आज इतनी अधिक सुविधाएँ और साधन- संपदाएँ प्राप्त हैं
कि २०० वर्ष पूर्व का मनुष्य इनकी कल्पना भी नहीं कर सकता था ।। पहले की
अपेक्षा उसके साधनों और सुविधाओं में निरंतर वृद्धि ही होती जा रही है ।।
इसके उपरांत भी मनुष्य अपने को पहले की तुलना में अभावग्रस्त, रुग्ण,
चिंतित और एकाकी ही अनुभव कर रहा है ।। भौतिक सुविधा- साधनों में अभिवृद्धि
होने के बाद होना तो यह चाहिए था कि मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक सुखी और
अधिक संतुष्ट रहता, किंतु हुआ इसके विपरीत ही है ।। यदि गंभीरतापूर्वक
मनुष्य की आंतरिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो प्रतीत होगा कि वह पहले
की तुलना में सुख- संतोष की दृष्टि से और अधिक दीन- दुर्बल हो गया है ।।
शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, पारिवारिक सौजन्य, सामाजिक सद्भाव,
आर्थिक संतोष और आंतरिक उल्लास की से सभी क्षेत्रों में मनुष्य जाति नई- नई
समस्याओं व संकटों से घिर गई है ।।
आज की सुविधा, संपन्नता की प्राचीनकाल की परिस्थितियों से तुलना की जाए और मनुष्य के सुख- संतोष को भी दृष्टिगत रखा जाए तो पिछले जमाने की असुविधा भरी परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति अधिक सुखी और संतुष्ट जान पड़ेंगे ।। इन पंक्तियों में भौतिक प्रगति तथा साधन- सुविधाओं की अभिवृद्धि को व्यर्थ नहीं बताया जा रहा है, न उनकी निंदा की जा रही है ।। कहने का आशय इतना भर है कि परिस्थितियाँ कितनी ही अच्छी और अनुकूल क्यों न हों, यदि मनुष्य के आंतरिक स्तर में कोई भी सुधार नहीं हुआ है तो सुख- शांति किसी भी उपाय से प्राप्त नहीं की जा सकती है ।।
वर्तमान युग की समस्याओं और संकटों के लिए परिस्थितियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता ।। परिस्थितियाँ तो पहले की अपेक्षा अब कहीं अधिक अच्छी, अनुकूल और सहायक हैं ।।
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विचार परिवर्तन से व्यक्तित्व निर्माण
यह संसार विचारों का ही प्रतिरूप है ।। विचार सूक्ष्म होते हैं ।। संसार की स्थूल वस्तुओं की रचना पहले किए गए विचार के अनुसार ही होती है ।। दर्शनशास्त्र के अनुसार यह समस्त जगत परमात्मा के एक विचार का ही परिणाम है ।। वह विचार था- "एकोऽहं बहुस्यामि" ।। कोई विचार तब ही फलित होता है, जब उसके प्रति सच्ची निष्ठा हो और दृढ़ संकल्प हो ।। संसार में जो उन्नति प्रगति और नए- नए परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं, वे सब विचारों के ही परिणाम हैं ।। मनुष्य यदि झूठी कल्पनाएँ करने के स्थान पर गंभीरतापूर्वक विचार करे और उसे पूरा करने के लिए सच्चे हृदय से प्रयत्न करे तो वह जैसे चाहे, वैसी उन्नति कर सकता है, जितना चाहे ऊँचा उठ सकता है, बड़े- बड़े काम करके दिखा सकता है ।। भिखारियों को सम्राट और साधारण मजदूरों को धन कुबेर बनते विचारों के बल पर ही देखा जा सकता है ।। दृढ़ विचार और हार्दिक संकल्प करके हम अपने व्यक्तित्व को जैसा चाहें बना सकते हैं; आवश्यकता है विचारों के प्रति सच्ची और दृढ़ निष्ठा की ।।
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वातावरण के परिवर्तन का आध्यात्मिक प्रयोग
युग- परिवर्तन को घड़ी सन्निकट है ।। व्यक्ति में दुष्टता और
समाज में भ्रष्टता जिस तूफानी गति से बढ़ रही है, उसे देखते हुए सर्वनाश की
विभीषिका सामने खड़ी प्रतीत होती है। किंतु ऐसे ही विषम असंतुलन को समय-
समय पर सुधारने संभालने के लिए स्रष्टा की प्रतिज्ञा भी तो है। अपनी इस
अनुपम कलाकृति, विश्व वसुधा को नियंता ने बड़े अरमानों के साथ बनाया है।
संकटों की घड़ी आने पर उसका अवतरण होता है और असंतुलन फिर संतुलन में बदल
जाता है। अधर्म को निरस्त और धर्म को आश्वस्त करने वाली ईश्वरीय सत्ता आज
को संकटापन्न विषम वेला में उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अपनी अवतरण
प्रक्रिया को फिर संपन्न करने वाली है ।।
यह आवश्यकता क्यों उत्पन्न हुई ? प्रश्न उठना स्वाभाविक है। उत्तर एक ही है- इन दिनों व्यापक क्षेत्रों में जो असंतुलन उत्पन्न हो रहा है, वह इतना बढ़ गया है कि अब स्रष्टा ही उसे संतुलन में साध और ढाल सकता है ।। यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर है कि धरती की व्यवस्था सँभालने का उत्तरदायित्व स्रष्टा ने मनुष्य को सौंपा है। साथ ही उसे इतना समर्थ शरीरतंत्र दिया है कि वह न केवल जीवधारियों के लिए सुख- शांति बनाए रहे वरन ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अदृश्य शक्तियों को भी अनुकूल रहने के लिए सहमत रख सके। अपने उस उत्तरदायित्व में व्यतिरेक करके जब मनुष्य अनाचार और उददंडता बरतता है- चिंतन को भ्रष्ट और आचरण को दुष्ट बनाता है तो उसकी प्रतिक्रिया अदृश्य जगत का संतुलन बिगाड़ती है और विपत्तियों का विक्षोभ उत्पन्न करती है। दैवी प्रकोप प्रत्यक्ष में लगते तो ऐसे हैं मानों अदृश्य द्वारा मनमानी की जा रही है।
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रानी दुर्गावती
स्वतंत्रता के लिए प्राण अर्पण करने वाली- रानी दुर्गावती
मानव- सभ्यता के आदिकाल से नारी का कार्यक्षेत्र घर माना गया है ।। वही संतान की जननी, पालन करने वाली और संरक्षिका है ।। पुरुष को वह जैसा बनाती है, वह प्राय: वैसा ही बन जाता है ।। इस दृष्टि से यदि उसे मानव जाति की निर्माणकर्त्री कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है ।। वैसे प्रकृति ने नारी को सब प्रकार की शक्तियाँ और प्रतिभाएँ पूर्ण मात्रा में प्रदान की हैं, पर गृह- संचालन की जिम्मेदारी के कारण उसमें मातृत्व और पत्नीत्व के गुणों का ही विकास सर्वाधिक होता है ।। उसको अपने इस क्षेत्र से बाहर निकलने की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है, पर जब आवश्यकता पड़ती है तो वह अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे महानता के कार्य कर दिखाती है कि दुनिया चकित रह जाती है ।।
यद्यपि वर्तमान समय में परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने के कारण स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के पेशों में प्रवेश कर रही हैं और शिक्षा, व्यवसाय, कला, उद्योग- धंधे, सार्वजनिक सेवा आदि अनेक क्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में स्त्रियाँ दिखाई पड़ने लगी हैं ।। यद्यपि हमारे देश में अभी यह प्रकृति आरंभिक दशा में है, पर विदेशों में तो करोड़ों स्त्रियाँ सब प्रकार के जीवन- निर्वाह के पेशों में भाग ले रही हैं ।। यदि यह कहा जाए कि इंग्लैंड, अमेरिका, रूस आदि देशों की तीन चौथाई से अधिक स्त्रियाँ गृह- व्यवस्था के अतिरिक्त अर्थोपार्जन और समाज- संचालन के अन्य कार्यो में भी संलग्न हैं, तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता।।
पर एक क्षेत्र ऐसा अवश्य है, जिसमें हमारे देश तथा अन्य देशों की स्त्रियों ने बहुत कम भाग लिया है, वह है, सेना और युद्ध का विभाग ।।
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युगऋषि चिंतन १
ऋषि चिंतन के सान्निध्य में परम पूज्य गुरुदेव के मौलिक विचारों का प्रस्तुतीकरण है सद्विचारों के माध्यम से महामानव कैसे किसी समय विशेष में जन समुदाय को एक विशिष्ट लक्ष्य की ओर मोड़ देते हैं इसका परिचय इन छोटे छोटे विचार सार रूपी संदेशों द्वारा मिलता है । अखंड ज्योति पत्रिका के सन १९४० से सन १९६६ तक के प्रकाशित लेखों में से महत्वपूर्ण चिंतनपरक विचारों का संकलन इस ग्रन्थ में किया गया है ।
इस ग्रन्थ के स्वाध्याय से हम अपना, अपने परिवारीजनों का जीवन सफल बनाएं। अपने परिचितों, स्नेहीजनों, रिश्तेदारों एवं अथितियों को सभा सम्मेलनों, विवाह संस्कार, जन्मदिवस किसी पर्व त्यौहार पर भेंट किया जाय, ताकि अपने परिकर में भी समान विचारधारा फैले । हमारा आत्मीय पाठक बंधुओं से निवेदन है कि इस ग्रन्थ की अधिकाधिक प्रतियाँ समाज में फैलाने में अपना हर संभव सहयोग करें ।
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Thursday, 20 April 2017
युग सृजन की दिशा प्रगतिशील लेखन
कला-कौशलों में अधिकांश ऐसे हैं, जो आजीविका उपार्जन, सम्मान
अर्जित करने में काम आते हैं, कुछ विनोद-मनोरंजन की आवश्यकता पूर्ण करते
हैं । कुछ से निजी प्रतिभा को उभारने का प्रयोजन सधता है । आमतौर से
कलाकृतियाँ इसी परिधि में परिभ्रमण करती रहती हैं, पर उनमें से कुछ ऐसी हैं
जो उपर्युक्त प्रयोजनों की तो न्यूनाधिक मात्रा में पूर्ति करती ही हैं,
बड़ी बात यह है कि यदि सदुपयोग बन पड़े तो विश्वमानव की असाधारण सेवा-साधना
करने में भी वे उच्चस्तरीय योगदान देती हैं ।
इस स्तर की कलाओं में दो मूर्द्धन्य हैं-(१) भाषण कला, (२) लेखन कला । संगीत को चाहें तो तीसरे नंबर का कह सकते हैं अथवा उसे वाणी प्रधान होने के कारण भाषण का ही एक अंश भी कह सकते हैं । अभिनय संगीत का सहोदर है । इस प्रकार वाणी के माध्यम से व्यक्त होने वाली कलाकारिता को भाषण, संगीत और अभिनय का समुच्चय भी कह सकते हैं । वर्गीकरण पृथक-पृथक भी हो सकता है । यहाँ प्रसंग एकीकरण या पृथक्करण का नहीं-यह है कि व्यक्ति की गरिमा बढ़ाने वाली और विश्व मानव की सेवा-साधना में उनके सदुपयोग की महती भूमिका होने की जानकारी सभी को है । सभी उसे स्वीकार भी करते हैं । शिक्षितों की तरह वह अशिक्षितों को भी ज्ञान गरिमा के आलोक से लाभान्वित करती है ।
युगांतरीय चेतना को अग्रगामी बनाने में मूर्द्धन्य भूमिका निभाने वाली भाषण कला का व्यापक शिक्षण प्रज्ञा-अभियान के द्वारा अत्यंत उत्साहपूर्वक सुनियोजित ढंग से किया जा रहा है ।
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युग निर्माण का शत सूत्री कार्यक्रम
युग निर्माण योजना का शत- सूत्री कार्यक्रम
युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है- आत्म निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण का उद्देश्य लेकर युग निर्माण योजना नामक एक आध्यात्मिक प्रक्रिया अखण्ड ज्योति के सदस्यों द्वारा जून ११६३ से आरंभ की गई है ।। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की अभिनव रचना का लक्ष्य पूरा करने के लिए तभी से यह आंदोलन सफलतापूर्वक चल और द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है ।।
आंदोलन के आरंभ में जनसाधारण को उसका स्वरूप समझाने के लिए जो सूत्र दिये गये थे, उनका समग्र स्वरूप इस पुस्तक में है ।। इसलिए पाठकों को ऐसा प्रतीत होगा, मानो यह कोई विचाराधीन योजना या किसी भावी कार्यक्रम की कल्पना है, पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं ।। विगत कई वर्षो से शत सूत्री योजना के यह सभी कार्यक्रम देश- विदेश के लाखों सदस्यों द्वारा बड़े उत्साहपूर्वक कार्यान्वित किए जा रहे हैं ।। प्रगति जिस आशाजनक और उत्साहपूर्ण ढंग से हो रही है, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि किसी समय का यह स्वप्न अगले कुछ ही समय में एक विशाल वृक्ष का रूप धारण करने जा रहा है और युग निर्माण की बात जो अत्युक्ति जैसी लगती थी, अगले दिनों एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में मूर्तिमान् होने वाली है ।।
नवनिर्माण का यह अभिनव आंदोलन समय की एक अत्यन्त आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण पुकार है ।। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के लिए यह योजना अपनाये जाने योग्य है ।। कारण, आज जिस स्थिति में होकर मनुष्य जाति को गुजरना पड़ रहा है, वह बाहर से उत्थान जैसी दीखते हुए भी वस्तुत: पतन की है ।। दिखावा, शोभा, श्रृंगार का आवरण बढ़ रहा है, पर भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला हुआ जा रहा है ।।
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युग की पुकार अनसुनी न करें
हमारे सामने एक नया युग चला आ रहा है, इसमें अब संदेह की कुछ भी
गुंजाइश नहीं रह गई है।। संसार में जैसी घोर हलचल मची हुई है, संपत्ति,
साधनों और भौतिक ज्ञान की असीम वृद्धि के होते हुए मानव- जीवन जिस प्रकार
अधिक अशांत और असंतुष्ट बनता जाता है, “मानव मात्र एक है" के तथ्य को समझते
हुए विभिन्न राष्ट्रों और जातियों के मतभेद जिस प्रकार तीव्र होते जाते
हैं, उससे विदित होता है कि हमारे भीतर, मनुष्य- समाज के भीतर कोई ऐसी गहरी
खराबी पैदा हो गई है, जो हमारे सहयोग- सामंजस्य को एक सूत्र बनने के
प्रयत्नों को सफल नहीं होने देती और अनेक विषयों में आश्चर्यजनक प्रगति
होते हुए हमें सर्वनाश की विभीषिका के निकट घसीटे लिए जा रही है।।
इस परस्पर विरोधी स्थिति का प्रधान कारण यही है कि हमने भौतिक ज्ञान- विज्ञान में जितनी प्रगति की है, उसके मुकाबले में अध्यात्म- ज्ञान और व्यवहार के क्षेत्र में हम कुछ भी आगे नहीं बढ़े, इतना ही नहीं उलटा पीछे हट गये है ।। इससे हमारे भीतर व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना पूर्वापेक्षा बलवती होती जाती है और नवीन वैज्ञानिक उन्नति से लाभ उठाने के लिए जिस सामूहिक भावना की, भ्रातृत्व की, मनोवृत्ति की आवश्यकता है; उसका उदय होने नहीं पाता ।। यही कारण है कि जिन वैज्ञानिक आविष्कारों से यह पृथ्वी स्वर्ग बन सकती थी, वे ही मानव- सभ्यता को जड़- मूल से नष्ट करने की आशंका उत्पन्न कर रहे हैं ।।
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यह बोल रहा है महाकाल
आप अपना लक्ष्य स्थिर कीजिए।। किस आदर्श के लिए अपना जीवन लगाना चाहते हैं, यह निश्चित कीजिए ।। तत्पश्चात उसी की पूर्ति में मन, वचन औंर कर्म से लग जाइए ।। लक्ष्य के प्रति तन्मय रहना मनुष्य की इतनी बड़ी विशेषता, प्रतिष्ठा, सफलता औंर महानता हैं कि उसकी तुलना में अनेकों प्रकार के आकर्षक गुणों को तुच्छ ही कहा जाएगा ।।
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महाशक्ति की लोकयात्रा (Sanskrit Kavya)
"महाशक्ति की लोकयात्रा" परम वन्दनीया माताजी के दिव्य जीवन की
अमृत कथा है । परात्पर प्रभु जब "सम्भवामि युगे-युगे" के अपने संकल्प को
पूरा करने के लिए मानव कल्याण हेतु धराधाम में अवतरित होते हैं, तब उनके
साथ उनकी लीला शक्ति का भी नारी रूप में प्राकट्य होता है । इतिहास-पुराण
के अनेक पृष्ठ भगवत्कथा के ऐसे दिव्य प्रसंगों से भरे पड़े हैं । मर्यादा
पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के साथ माता सीता आईं । भगवान् बुद्ध के साथ
यशोधरा, चैतन्य महाप्रभु के साथ देवी विष्णुप्रिया, भगवान् श्रीरामकृष्ण
देव के साथ माता शारदा ने अवतार लेकर उनके ईश्वरीय कार्य में सहायता की ।
वर्तमान युग में उसी महाशक्ति ने माता भगवती के रूप में अपनी समस्त कलाओं के साथ इस धरालोक पर अवतार लिया । अपनी इस लोकयात्रा में महाशक्ति ने अपने आराध्य वेदमूर्ति तपोनिष्ठ युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य के ईश्वरीय कार्य में सहायता करने के साथ हम सबके सामने अनेक जीवनादर्श प्रस्तुत किए । आदर्श गृहिणी, आदर्श माता, आदर्श तपस्विनी, आदर्श योग साधिका के साथ उन्होंने योग की उच्चतम दिव्य विभूतियों से सम्पन्न आदर्श गुरु का स्वरूप हम सबके समक्ष प्रकट किया । यही नहीं उन्होंने अपने पवित्र और साधना सम्पन्न जीवन के द्वारा भारतीय नारी की गरिमा को भव्य अभिव्यक्ति दी ।
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Tuesday, 18 April 2017
महाकाल की चेतावनी
यह आत्मावलोकन का समय
वर्तमान समय में क्षेत्रों मे एवं हम सभी कार्यकर्ताओं की अंतरात्मा में उथल- पुथल, आपसी मनोमालिन्य बढ़ते जा रहे हैं ।। गुरुदेव की आकांक्षा के अनुसार मिशन के कार्यक्रम आपसी सामंजस्य से युद्ध स्तर पर मिशन के पाँच संस्थानों से एक रूपता के साथ चलना आवश्यक है ताकि क्षेत्रीय कार्यकर्ता असमंजस में न रहें और युग परिवर्तन की संधि बेला में हम सभी पूज्य गुरुदेव के द्वारा सौंपे गए महान उत्तरदायित्वों का पालन करने में सफल हो सकें ।। इसके लिए हम सभी को पूज्य गुरुदेव के निम्नलिखित विचारों का गंभीरता से आत्म चिंतन करके आचरण में लाने का हर संभव प्रयास करना चाहिए ।। जहाँ अपनी गलतियाँ हों उन्हें दूर करके समर्पण भाव से, आपसी प्यार- सहकार से कर्तव्य पालन में जुट जाना चाहिए ।। तभी हम सभी पूज्य “गुरुदेव की कृपा से अपने जीवन को सार्थक बनाने में सफल हो सकेंगे एवं युग परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकेंगे ।।
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महाकाल का संदेश जाग्रत आत्माओं के नाम
युग परिवर्तन जैसे बड़े कार्यों के उत्तरदायित्व और भार
सामर्थ्य-सम्पन्न लोग ही सँभाल सकते हैं। युग निर्माण योजना की विचारधारा
और क्रियापद्धति विभूति संपन्न लोगों तक पहुँचाई जानी चाहिए। खोज-खोज कर
उन्हें प्रभावित किया जाना चाहिए। तथ्यों का प्रस्तुतीकरण ठीक ढंग से किया
जाए तो महाकाल का आह्वान वह भली प्रकार समझ सकते हैं और अपना समर्थ योगदान
देकर कार्य की प्रगति में कई गुनी गति ला सकते हैं । इसी उद्देश्य से इस
पुस्तिका में पूज्य गुरुदेव के ऐसे प्रखर और सशक्त विचार संकलित किए गये
हैं, जिनका अध्ययन, चिंतन, मनन यदि एकाग्रता और पूर्ण मनोयोग से किया जाए
तो युगधर्म के परिपालन के लिए एकसुनिश्चित प्रेरणा एवं क्रियापद्धति
प्राप्त हो जाएगी ।
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मंदिर जन-जागरण के केंद्र बने
भारतवर्ष में लगभग ६ लाख मंदिर हैं, जिनमें पुजारी नियत हैं और
नियमित रूप से सेवा- पूजा की व्यवस्था होती है ।। इनमें से सैकड़ों ऐसे हैं
।। जिनमें दर्जनों कर्मचारी विभिन्न प्रयोजनों के लिए रहते हैं, पर हम
न्यूनतम औसत निकालने के लिए यह मान लेते हैं कि हर मंदिर के पीछे केवल एक
कर्मचारी नियुक्त है ।। यद्यपि हजारों ही मंदिर ऐसे हैं जिनका भोग- प्रसाद,
उत्कृष्ट श्रृंगार, सफाई, रोशनी, मरम्मत आदि का खर्च लाखों रुपया मासिक
है, न्यूनतम औसत भोगप्रसाद, दीपक, मरम्मत तथा पुजारी का वेतन आदि पर कुल
मिलाकर १०० रुपया मासिक मान लिया जाए तो अधिक नहीं वरन् कम से कम ही समझना
चाहिए ।। यह अनुमान तो लगा ही लेना चाहिए कि ६ लाख मंदिरों का खर्च १००
रुपया प्रतिमास के हिसाब से ६ करोड़ रुपया मासिक अर्थात् ७२ करोड़ रुपए
वार्षिक है ।।
विशाल जन- शक्ति और विपुल धन- शक्ति
भारतवर्ष में ५६७१६९ गाँव और २६९० शहर हैं ।। कुल मिलाकर इनकी संख्या ६ लाख होती है इनमें हर जगह एक मंदिर का हिसाब तो मानना ही चाहिए ।। मामूली गाँवों और कस्बों में कई- कई संप्रदाय के कई देवताओं के कई- कई मंदिर होते हैं ।। बड़े शहरों में तो उनकी संख्या सैकड़ों होती है, फिर भी औसतन हर गाँव के पीछे एक का औसत मान लिया जाए तो इनकी संख्या भी ६ लाख हो जाती है ।।
हर मंदिर के पीछे कई- कई कर्मचारी होते हैं पुजारी, महंत, मुनीम, चौकीदार माली आदि ।। कितने ही बड़े मंदिरों में तो सैकड़ों कर्मचारी काम करते हैं ।। दो- दो तीन- तीन तो हजारों में होंगे फिर भी न्यूनतम एक पुजारी हर मंदिर के पीछे मानना ही होगा ।। इस प्रकार ६ लाख मंदिरों में ६ लाख पुजारी हो गए ।। यह सब गहस्थ होते हैं ।। अन्य उद्योगों में लगे हुए व्यक्तियों के घर वाले भी अपने काम- धंधों में सहायक होते हैं ।।
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प्रतिगमिता का कुचक्र ऐसे टुटेगा-५९
किसी भी समाज अथवा देश की प्रगति में, स्वस्थ रीति- रिवाजों एवं
सत्परम्पराओं का विवेक की कसौटी पर उचित ठहरायी जा सकें, विशेष योगदान होता
है।। कई परम्परागत प्रचलन ऐसे हैं जो व्यक्ति व समाज दोनों की प्रगति में
आज भी सहायक हैं ।। ऐसे विवेकपूर्ण उपयोगी रीति- रिवाजों या प्रथा-
परम्पराओं का अनुकरण तो उचित है किंतु जिनकी न कोई उपयोगिता है, न कोई
औचित्य एवं फिर भी वे समाज में जड़ जमाए बैठे हैं -ऐसे प्रचलनों को उखाड़
फेंका जाना चाहिए, यह परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी आग उगलने वाली लेखनी से
इतने तर्कों व प्रमाणों के साथ लिखा है कि कहीं भी कोई गुंजाइश उनका समर्थन
करने की रह नहीं जाती ।।
युग निर्माण योजना की धुरी निश्चित ही व्यक्ति निर्माण पर टिकी है परंतु वही इकाई तो समूह रूप में मिलकर समाज का निर्माण करती है ।। समाज का नवनिर्माण तब तक संभव नहीं, जब तक कि मान्यताओं, रीति- रिवाजों, परम्पराओं, प्रथाओं- प्रचलनों के क्षेत्र में आमूलचूल क्रान्ति नहीं की जाती ।। राष्ट्र का समग्र विकास तभी संभव है जब वह इन पिछड़ेपन की ओर ले जाने वाली अवैज्ञानिक एवं नितान्त अप्रासंगिक समझी जाने वाली रूढ़िवादी मान्यताओं, अंधविश्वासों से मुक्ति पा सके ।। शिक्षा विस्तार कें साथ बहुसंख्य भारत में छिटपुट स्थानों पर इनका विरोध तो हुआ है पर एक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में यह प्रक्रिया उभर कर नहीं आयी ।। यह एक ज्वलन्त मुद्दा बने एवं प्रतिगामिता के कुचक्र से हम सभी मुक्त हों, यही युग- ऋषि ने वाड्मय के इस खण्ड में कूट- कूट कर भरा है ।।
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पतन निवारण
मनुष्य जीवन की गरिमा को समझा नहीं जा सका तो उसे सबसे बड़ा दुर्भाग्य कहना चाहिए । सृष्टि के समस्त प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य को जो मिला है उसे अतुलनीय ही कह सकते हैं । परम प्रभु ने अपने बड़े बेटे को जो उत्तराधिकार सौंपा है, उसका प्रत्येक पक्ष अद्भुत है । सामान्य दृष्टि से तो हम भी पेट और प्रजनन में निरंतर व्यस्त अगणित समस्याओं से उलझे और संकटों के दल-दल में फँसे नगण्य जीवधारी भर हैं । अन्य प्राणी निर्वाह और सुरक्षा भर की समस्याएँ अपने पुरुषार्थ से हल करते और चैन से दिन गुजारते हैं । मनुष्य आंतरिक उलझनों, महत्त्वाकांक्षाओं, मनोविकारों और प्रतिकूल परिस्थितियों से इतना उद्विग्न रहता है कि दिन गुजारने भारी पड़ते हैं । जिंदगी की लाश बड़ी कठिनाई से ही ढोना संभव हो पाता है ।
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Monday, 17 April 2017
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य दर्शन एवं दृष्टि
समय के साथ बदलती परिस्थितियाँ नित नई चुनौतियां प्रस्तुत करती
हैं । जटिलताओं के मकड़जाल में छटपटाती जीवित जीवनियाँ मानसिक तनाव,
सांस्कृतिक विलम्बना और अपूर्णता से छुटकारा पाना चाहती है। सुविधाओं की ओर
अंधी दौड़ के प्रतिभागी मृग मारीचिका के चक्रव्यूह में फँस जाते हैं । ऐसे
में हताशा कुंठा और निराशा का दावानल अपना प्रभाव दिखाकर प्रतिभाओं पर
कुठाराघात करने लगते हैं । असामान्य परिस्थितियों के धरातल पर बहुआयामी
जीवन को जीने की व्यवहारिक कला सीख कर यथार्थ के समीप पहुंचना सहज नहीं है ।
अखिल विश्व गायत्री परिवार के सस्थापक पं श्रीराम शर्मा आचार्य की मानवीय
जीवन लीला वर्तमान समय में प्रेरणा पुंज बनकर विश्व के करोड़ों लोगों के
आत्म विश्वास को पुष्ट करके सतुंष्टि के मार्ग प्रशस्त कर रही है । समाज के
सभी पक्षों को एक साथ आत्मसात करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।
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नया संसार बसायेगे, नया इन्सान बनायेगे
वसुधैव कुटंबकम का सैद्धांतिक आधार

स्थिति और बाह्य उपलब्धियों की दृष्टि से कोई व्यक्ति भले ही साधनहीन दिखाई
दे, पर यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति को जन्मजात रूप से सब कुछ न सही तो
भी बहुत कुछ अवश्य मिला है ।।
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धर्म तत्व का दर्शन, मर्म-५३
धर्म शब्द सम्प्रदाय से भिन्न, बड़ी व्यापक परिभाषा लिए हुए है। जहाँ सम्प्रदाय उपासना विधि, कर्मकाण्डों और रीति-रिवाजों का समुच्चय है वहाँ धर्म एक प्रकार से जीवन जीने की शैली का ही दूसरा नाम है। सम्प्रदायपरक मान्यताएँ देश, काल, क्षेत्र, परिस्थिति के अनुसार बदलती रह सकती हैं, परन्तु धर्म शाश्वत-सनातन् होता है। धर्म की तीन भाग बताए जाते हैं, जिन्हें परस्पर संबद्ध करने पर ही वह समग्र बनता है- ये हैं तत्वदर्शन-ज्ञानमीमांस, नीतिशास्त्र एवं अध्यात्म। धर्मधारणा हरेक के लिए अनिवार्य है एवं उपयोगी भी। धर्म का अवलम्बन निज की सुरक्षा ही नहीं, समाज की अखण्डता के लिए भी जरूरी है।
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देखन मे छोटे लगें घाव करे गम्भीर भाग-३
युग शक्ति का उद्भव और युग निर्माण

युग निर्माण अभियान का लक्ष्य है- मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर
स्वर्ग का अवतरण ।। श्रेष्ठ व्यक्ति की ही देव संज्ञा है ।। देवता स्वर्ग
में रहते हैं ।। स्वर्ग ऊपर है ऊपर ऊँचाई की स्थिति ही स्वर्ग है ।। स्वर्ग
से तात्पर्य है व्यक्तित्व ।। वह दृष्टिकोण, वह क्रिया- कलाप जो
सर्वसाधारण की तुलना में ऊँचा, उच्चस्तरीय हो ।। ऐसा वातावरण जिसमें
श्रेष्ठता, सज्जनता और शालीनता छाई रहती हो, स्वर्ग कहा जाएगा ।। जहाँ ऐसी
मनःस्थिति होगी वहाँ सहज सुख- शांति की, समृद्धि और प्रगति की परिस्थितियाँ
रहेंगी ही ।। मानवी कर्तृत्व का आधे से अधिक भाग आक्रमणों से रक्षा करने,
आशंकाओं का समाधान ढूँढने और आक्रोश- आवेगों की प्रेरणा से ध्वंस करने वाले
कृत्य करने में खरच होता रहता है ।। यदि इसे बचाकर सृजन में लगाया जा सके
तो निश्चित रूप से उनके द्वारा आंतरिक प्रसन्नता और बाह्य सुविधा की
अभिवृद्धि में भारी योगदान मिल सकता है ।। स्वर्ग के अवतरण का, धर्म- राज्य
के संस्थापन का स्वरूप यही है ।। यह सम्मिलित प्रक्रिया है ।। मनुष्यों का
समूह ही समाज है ।। सामाजिक सतवृत्तियाँ ही स्वर्ग का निर्माण करती हैं ।।
समाज निर्माण के लिए व्यक्ति का निर्माण करना होगा ।।
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देखन मे छोटे लगें घाव करे गम्भीर भाग-२
नारी का शील- राष्ट्र की संपत्ति
कैसोविया गणराज्य के एक बड़े नगर गुइनपापर में चार व्यक्तियों को एक स्त्री के साथ बलात्कार करने के मामले में मृत्युदंड की सजा दी गई ।। इस मुकदमे की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि किसी भी वकील ने इस मुकदमे की पैरवी करना स्वीकार नहीं किया ।। सुनवाई कुल चार दिन हुई और पाँचवें दिन निर्णय देकर छठवें दिन चारों अपराधियों को निर्णयानुसार शूली पर चढ़ा दिया गया ।।
इस्तगासे के अनुसार ९१ वर्षीय युवती मेट्रन बाविना किसी काम से बाजार जा रही थी ।। विद्यालय और सड़क के बीच थोड़ा फासला पड़ता था, वहीं अभियुक्तों ने उसे पकड़ लिया तथा बंदूक दिखाकर उसे डराया और उसके साथ बलात्कार किया ।। तुरंत बाद ही चारों अभियुक्तों को हिरासत में ले लिया गया ।। युवती की शिनाख्त के अतिरिक्त कई अन्य प्रत्यक्ष प्रमाण थे, जिनके कारण सभी चारों बदमाशों ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया ।।
जब मामला अदालत में लाया गया, उस समय सर्वप्रथम आदर्श उपस्थित किया एडवोकेट संघ ने, जिसकी तुरंत बैठक की गई ।। बैठक के अध्यक्ष की इस अपील पर कि जहाँ तक अन्य सामाजिक मामले हैं उनमें थोड़ी- बहुत असमानता हो सकती है, पर स्त्रियों की सुरक्षा और उनके शील की रक्षा सारे समाज के लिए एक- सी है ।। हम यह कभी सहन नहीं कर सकते कि जिन स्त्रियों के चरित्र के कारण हम पुरुषों का भाग्य और चरित्र निर्मित होता है, उनको लोग बंदूक से डराकर पथभ्रष्ट किया करें ।। यह प्रत्येक व्यक्ति के साथ विश्वासघात है, इसलिए ऐसे प्रत्येक दुराचरणशील व्यक्ति को कभी भी माफ नहीं किया जाना चाहिए ।।
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दुनिया नष्ट नहीं होगी श्रेष्ठतर बनेगी
युगऋषि (वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० आचार्य श्रीराम शर्मा) ने मनुष्य मात्र को उज्ज्वल भविष्य तक ले जाने वाली दैवी योजना ‘युग निर्माण योजना’ भी घोषणा तो की ही, उसे एक प्रकार प्रखर जन आन्दोलन का स्वरूप भी प्रदान किया। भारत द्वारा पुनः विश्वगुरु की भूमिका निभाने के गरिमामय स्तर तक पहुँचने की बात स्वामी विवेकानन्द एवं योगी श्री अरविन्द आदि ने अपने वक्तव्यों में बार- बार दोहराई है। युगऋषि ने उन्हीं के कथन के अनुरूप उस दिव्य योजना के अगले चरणों के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक स्वरूपों का खुलासा किया है। जन- जन को उसी ईश्वरीय योजना में भागीदारी लेने- निभाने के लिए आमंत्रित तथा प्रेरित किया है।
महापुरुषों के उक्त कथन को जानते हुए भी बड़ी संख्या में नर- नारी निकट भविष्य में किसी विनाशलीला की संभावनाओं से भयभीत देखे जाते हैं। उनका भय अकारण भी नही हैं। बिगड़ते पर्यावरण के कारण बढ़ता भूमण्डलीय तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) अनेक प्राकृतिक भीषण विपदाओं की ओर संकेत कर रहा है। मनुष्य में बढ़ते अहंकार के कारण बढ़ रहे छोटे बड़े विग्रहों से लेकर विश्वयुद्ध- अणुयुद्ध तक की संभावनाएँ कम खतरनाक नही हैं। मनुष्य की संकीर्ण स्वार्थपरता तथा अनगढ़ सुख लिप्सा के कारण बढ़ते अपराध मनुष्य जाति को कहाँ ले जाकर पटकेगें? यह चिन्ता हर समझदार के मन में उठती है, तो उसे निराधार भी तो नहीं कहा जा सकता। माया सभ्यता की कालसारिणी (मायान्स कैलेण्डर) को लेकर उभरी अनगढ़ चर्चाओं ने उक्त भय को और भी बढ़ा दिया है।
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