हमारी भावी पीढी और उसका नवनिर्माण-६३
आज के बालक ही कल के विश्व के, इक्कसवीं सदी के नागरिक होंगे।
उनका निर्माण उनकी परिपक्व आयु उपलब्ध होने पर नहीं, बाल्यकाल में ही संभव
है, जब उनमें संस्कारों का समावेश किया जाता है। संतानोत्पादन के बाद सबसे
महत्त्वपूर्ण उपक्रम है उन्हें बड़ा करना, उन्हें शिक्षा व विद्या दोनों
देना तथा संस्कारों से अनुप्राणित कर उनके समग्र विकास को गतिशील बनाना।
सद्गुणों की सम्पत्ति ही वह निधि है जो बालकों का सही निर्माण कर सकती है।
इसी धुरी पर वाङ्मय का यह खण्ड केंद्रित है।
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