ब्रह्मा जी प्रात:काल संध्या-वन्दन के लिए बैठे। चुल्लू में आचमन
के लिए पानी लिया। उसमें छोटा सा कीड़ा विचरते देखा। ब्रह्माजी ने सहज
उदारतावश उसे जल भरे क मण्डल में छोड़ दिया और अपने क्रिया-कृत्य में लग
गए। थोड़े ही समय में वह कीड़ा बढ़कर इतना बड़ा हो गया कि सारा क मण्डल ही
उससे भर गया। अब उसे अन्यत्र भेजना आवश्यक हो गया। उसे समीपवर्ती तालाब में
छोड़ा गया। देखा गया कि वह तालाब भी उस छोटे से कीड़े के विस्तार से भर
गया। इतनी तेज प्रगति और विस्तार को देखकर वे स्वयं आश्चर्यचकित हुए और एक
दो बार इधर-उधर उठक-पटक करने के बाद उसे समुद्र में पहुँचा आए। आश्चर्य यह
कि संसार भर का जल थल क्षेत्र उसी छोटे कीड़े के रूप में उत्पन्न हुई मछली
ने घेर लिया।
इतना विस्तार आश्चर्यजनक, अभूतपूर्व, समझ में न आने योग्य था।
जीवधारियों की कुछ सीमाएँ, मर्यादाएँ होती है, वे उसी के अनुरूप गति पकड़ते
हैं, पर यहाँ तो सब कुछ अनुपम था। ब्रह्माजी जिनने उस मछली की जीवन-रक्षा
और सहायता की थी, आश्चर्यचकित रह गए। बुद्धि के काम न देने पर वे उस
महामत्स्य से पूछ ही बैठे कि यह सब क्या हो रहा है? मत्स्यावतार ने कहा-मैं
जीवधारी दीखता भर हूँ, वस्तुत: परब्रह्म हूँ। इस अनगढ़ संसार को जब भी
सुव्यवस्थित करना होता है, तो उस सुविस्तृत कार्य को सम्पन्न करने के लिए
अपनी सत्ता को नियोजित करता हूँ। तभी अवतार प्रयोजन की सिद्धि बन पड़ती है।
ब्रह्मा जी और महामत्स्य आपस में वार्तालाप करते रहे। सृष्टि को नई
साज-सज्जा के साथ सुन्दर-समुन्नत करने की योजना बनाकर, उस निर्धारण की
जिम्मेदारी ब्रह्मा जी को सौंपकर, वे अन्तर्ध्यान हो गए और वचन दे गए कि जब
कभी अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलने की आवश्यकता पड़ेगी, उसे सम्पन्न
करने के लिए मैं तुम्हारी सहायता करने के लिए अदृश्य रूप में आता रहूँगा।
Buy online:
No comments:
Post a Comment