शिक्षा एवं विद्या-४९
परमपूज्य गुरुदेव ने वाड्मय के इस खंड में शिक्षा एवं विद्या के
इसी अंतर को बताते हुए आज की शिक्षण व्यवस्था की कमियाँ एवं सुसंस्कारिता
संवर्द्धन करने वाली गुरुकुलस्तरीय विद्या को उसमें समाविष्ट किए जाने की
महत्ता प्रतिपादित की है । शिक्षा का स्तर जहाँ ऊँचा होगा, निश्चित रूप से
वहाँ सभ्यता का विकास सर्वोच्च स्तर पर होगा, किंतु यदि शिक्षा के साथ-साथ
विद्या या दीक्षा भी जुड़ी होगी तो संस्कारवान सुसंततियाँ समाज में बढ़ती चली
जाएँगी । शिक्षा जहाँ सभ्यता के विकास के लिए आवश्यक है, व्यावहारिक ज्ञान
के संवर्द्धन तथा अपने पैरों पर खड़े होने के लिए जरूरी है वहाँ विद्या
अपने जीवन के उद्देश्य को समझने, अनगढ़ता को सुगढता में बदलने और जीवन जीने
की कला के शिक्षण के रूप में एक पूरक की भूमिका निभाती है । इसके लिए पढ़ाई
पूरी कराना और उससे आगे का शिक्षण भी कराना हर समाज के लिए आवश्यक है;
किंतु यह परिश्रम अधूरा माना जाएगा यदि शिक्षार्थियों में संवेदना के
विकास, सतवृत्तियों के संवर्द्धन, समाज परायण बनने का शिक्षण साथ-साथ नहीं
दिया गया । जब शिक्षा एक साधन और व्यक्तित्व विकास एक साध्य बन जाता है तो
फिर शिक्षा को उतना महत्त्व न देकर विद्या संवर्द्धन के निमित्त किए गए
आध्यात्मिक स्तर के प्रयास भूमिका निभाते देखे जा सकते हैं । अब न तो
छात्रों में वह पात्रता है और न ही विनम्रता । शिक्षक भी अपनी गरिमा के
अनुरूप वह भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं, जो प्राचीनकाल के गुरुकुलों के
प्राध्यापक निभाते थे । समस्त प्रकार की प्रतिकूलताओं में रहते हुए भी
गुरुकुल से निकलने वाला छात्र चरित्रनिष्ठा, प्रतिभा व लोकसेवी प्रवृत्ति
की दृष्टि से इतना खरा पाया जाता था कि सर्वसाधारण द्वारा इन्हें सतत
सम्मान मिलता था ।
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