स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा
मानवीय अंतराल में प्रसुप्त पड़ा विभूतियों का सम्मिश्रण जिस
किसी में सघन- विस्तृत रूप में दिखाई पड़ता है, उसे प्रतिभा कहते हैं। जब
इसे सदुद्देश्यों के लिये प्रयुक्त किया जाता है तो यह देवस्तर की बन जाती
है और अपना परिचय महामानवों जैसा देती है। इसके विपरीत यदि मनुष्य इस संपदा
का दुरुपयोग अनुचित कार्यों में करने लगे तो वह दैत्यों जैसा व्यवहार करने
लगती है। जो व्यक्ति अपनी प्रतिभा को जगाकर लोकमंगल में लगा देता है, वह
दूरदर्शी और विवेकवान् कहलाता है।
आज कुसमय ही है कि चारों तरफ दुर्बुद्धि का साम्राज्य छाया दिखाई देता है।
इसी ने मनुष्य को वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धत स्वभाव वाला वनमानुष
बनाकर रख दिया है। दुर्बुद्धि ने अनास्था को जन्म दिया है एवं ईश्वरीय
सत्ता के संबंध में भी नाना प्रकार की भ्रांतियाँ समाज में फैल गई हैं। हम
जिस युग में आज रह रहे हैं, वह भारी परिवर्तनों की एक शृंखला से भरा है।
इसमें परिष्कृत प्रतिभाओं के उभर आने व आत्मबल उपार्जित कर लोकमानस की
भ्रांतियों को मिटाने की प्रक्रिया द्रुतगति से चलेगी। यह सुनिश्चित है कि
युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी। मनस्वी- आत्मबल संपन्न ही अपनी भी औरों की
भी नैया खेते देखे जाते हैं। इस तरह सद्बुद्धि का उभार जब होगा तो जन- जन
के मन- मस्तिष्क पर छाई दुर्भावनाओं का निराकरण होता चला जाएगा। स्रष्टा की
दिव्यचेतना का अवतरण हर परिष्कृत अंत:करण में होगा एवं देखते- देखते युग
बदलता जाएगा। यही है प्रखर प्रज्ञारूपी परम प्रसाद जो स्रष्टा- नियंता अगले
दिनों सुपात्रों पर लुटाने जा रहे हैं।
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