देवसंस्कृति का पुण्य-प्रवाह इन दिनों सारे विश्व को आप्लावित कर
रहा है । सभी को लगता है कि यदि कहीं कोई समाधान आज के उपभोक्ता प्रधान
युग में जन्मी समस्याओं का है, तो वह मात्र एक ही है-संवेदना मूलक
संस्कृति-भारतीय संस्कृति के दिग-दिगन्त तक विस्तार में । यह संस्कृति
देवत्व का विस्तार करती रही है, इसीलिए इसे देव संस्कृति कहा गया । इस
संस्कृति को एक महामानव ने अपने जीवन में जिया-हर सास में उसे धारण कर
जन-जन के समक्ष एक नमूने के रूप में प्रस्तुत किया । वह महापुरुष थे-परम
पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी । गायत्री परिवार के
संस्थापक-अधिष्ठाता-युग की दिशा को एक नया मोड़ देने वाले इस प्रज्ञा पुरुष
का जीवन बहुआयामी रहा है । उनने न केवल एक संत-मनीषी-ज्ञानी का जीवन जिया,
स्नेह संवेदना की प्रतिमूर्त्ति बनकर एक विराट परिवार का संगठन कर उसके
अभिभावक भी वे बने । आज के इस भौतिकता प्रधान युग में यदि कहीं कोई
शंखनिनाद-घडियाल के स्वर, मंत्रों की ऋचाएँ-यज्ञ धूम्र के साथ उठते समवेत
सामगान सुनाई पड़ते हैं, लोगों को अंधेरे में भी कहीं पूर्व की सूर्योदय की
उषा लालिमा दिखाई पड़ रही है, तो उसके मूल में हमारे संस्कृति पुरुष ही हैं ।
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