प्रतिगमिता का कुचक्र ऐसे टुटेगा-५९
किसी भी समाज अथवा देश की प्रगति में, स्वस्थ रीति- रिवाजों एवं
सत्परम्पराओं का विवेक की कसौटी पर उचित ठहरायी जा सकें, विशेष योगदान होता
है।। कई परम्परागत प्रचलन ऐसे हैं जो व्यक्ति व समाज दोनों की प्रगति में
आज भी सहायक हैं ।। ऐसे विवेकपूर्ण उपयोगी रीति- रिवाजों या प्रथा-
परम्पराओं का अनुकरण तो उचित है किंतु जिनकी न कोई उपयोगिता है, न कोई
औचित्य एवं फिर भी वे समाज में जड़ जमाए बैठे हैं -ऐसे प्रचलनों को उखाड़
फेंका जाना चाहिए, यह परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी आग उगलने वाली लेखनी से
इतने तर्कों व प्रमाणों के साथ लिखा है कि कहीं भी कोई गुंजाइश उनका समर्थन
करने की रह नहीं जाती ।।
युग निर्माण योजना की धुरी निश्चित ही व्यक्ति निर्माण पर टिकी है परंतु
वही इकाई तो समूह रूप में मिलकर समाज का निर्माण करती है ।। समाज का
नवनिर्माण तब तक संभव नहीं, जब तक कि मान्यताओं, रीति- रिवाजों, परम्पराओं,
प्रथाओं- प्रचलनों के क्षेत्र में आमूलचूल क्रान्ति नहीं की जाती ।।
राष्ट्र का समग्र विकास तभी संभव है जब वह इन पिछड़ेपन की ओर ले जाने वाली
अवैज्ञानिक एवं नितान्त अप्रासंगिक समझी जाने वाली रूढ़िवादी मान्यताओं,
अंधविश्वासों से मुक्ति पा सके ।। शिक्षा विस्तार कें साथ बहुसंख्य भारत
में छिटपुट स्थानों पर इनका विरोध तो हुआ है पर एक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप
में यह प्रक्रिया उभर कर नहीं आयी ।। यह एक ज्वलन्त मुद्दा बने एवं
प्रतिगामिता के कुचक्र से हम सभी मुक्त हों, यही युग- ऋषि ने वाड्मय के इस
खण्ड में कूट- कूट कर भरा है ।।
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