सामाजिक नैतिक बोद्धिक क्रान्ति कैसे-६५
आज का मनुष्य अधिक सुविधा व साधन सम्पन्न है ।। इतना अधिक कि २००
वर्ष पूर्व का मनुष्य कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था ।। वैज्ञानिक
क्रान्ति व आर्थिक क्रान्ति ने साधनों के अम्बार जुटा दिये हैं, फिर भी
मनुष्य पहले की तुलना में स्वयं को अभावग्रस्त, रुग्ण, चिन्तित व एकाकी ही
अनुभव कर रहा है ।। सुख- सन्तोष की दृष्टि से वह पहलें की अपेक्षा और अधिक
दीन- दुर्बल हो गया है ।। शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, नैतिक विकास,
पारिवारिक सौजन्य, सामाजिक- सद्भाव, आर्थिक संतोष व आंतरिक उल्लास की
दृष्टि से मनुष्य जाति समग्र विश्व में नई- नई समस्याओं से घिर गयी है ।।
परमपूज्य गुरुदेव इन सभी समस्याओं के मूल में उलटी बुद्धि का नट नृत्य ही
देखते हैं ।। दुर्गतिजन्य दुर्गति ही चारों ओर दिखाई देती है एवं यह
दुर्बुद्धि भावनात्मक स्तर पर एक विचार क्रान्ति के बिना ठीक होगी नहीं, यह
उनका वाड्मय के इस खण्ड में अभिमत है ।।
विचारों में अपार शक्ति छिपी पड़ी है ।। विचारशीलता एवं विवेकशीलता विकसित
की जा सके तो तथाकथित शिक्षा में प्राण डाले जा सकते हैं एवं व्यक्ति को
विद्या रूपी संजीवनी द्वारा मूर्च्छना से उबारा जा सकता है ।। गायत्री
परिवार का यही लक्ष्य बताते हुए बारबार युगद्रष्टा आचार्यश्री ने लिखा है
कि, बिना एक व्यापकस्तरीय विचार क्रान्ति के इस राष्ट्र का ही नहीं, सारी
विश्व- वसुधा का सामाजिक, नैतिक व बौद्धिक स्तर पर नवनिर्माण सम्भव नहीं ।।
गायत्री एवं यज्ञ के तत्वदर्शन को इसके लिए अनिवार्य बताते हुए उनने जन-
जन तक सद्बुद्धि व सद्कर्म का संदेश पहुँचाने की आवश्यकता का प्रतिपादन
किया है ।।
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