युग सृजन की दिशा प्रगतिशील लेखन
कला-कौशलों में अधिकांश ऐसे हैं, जो आजीविका उपार्जन, सम्मान
अर्जित करने में काम आते हैं, कुछ विनोद-मनोरंजन की आवश्यकता पूर्ण करते
हैं । कुछ से निजी प्रतिभा को उभारने का प्रयोजन सधता है । आमतौर से
कलाकृतियाँ इसी परिधि में परिभ्रमण करती रहती हैं, पर उनमें से कुछ ऐसी हैं
जो उपर्युक्त प्रयोजनों की तो न्यूनाधिक मात्रा में पूर्ति करती ही हैं,
बड़ी बात यह है कि यदि सदुपयोग बन पड़े तो विश्वमानव की असाधारण सेवा-साधना
करने में भी वे उच्चस्तरीय योगदान देती हैं ।
इस स्तर की कलाओं में दो मूर्द्धन्य हैं-(१) भाषण कला, (२) लेखन कला ।
संगीत को चाहें तो तीसरे नंबर का कह सकते हैं अथवा उसे वाणी प्रधान होने के
कारण भाषण का ही एक अंश भी कह सकते हैं । अभिनय संगीत का सहोदर है । इस
प्रकार वाणी के माध्यम से व्यक्त होने वाली कलाकारिता को भाषण, संगीत और
अभिनय का समुच्चय भी कह सकते हैं । वर्गीकरण पृथक-पृथक भी हो सकता है ।
यहाँ प्रसंग एकीकरण या पृथक्करण का नहीं-यह है कि व्यक्ति की गरिमा बढ़ाने
वाली और विश्व मानव की सेवा-साधना में उनके सदुपयोग की महती भूमिका होने की
जानकारी सभी को है । सभी उसे स्वीकार भी करते हैं । शिक्षितों की तरह वह
अशिक्षितों को भी ज्ञान गरिमा के आलोक से लाभान्वित करती है ।
युगांतरीय चेतना को अग्रगामी बनाने में मूर्द्धन्य भूमिका निभाने वाली भाषण
कला का व्यापक शिक्षण प्रज्ञा-अभियान के द्वारा अत्यंत उत्साहपूर्वक
सुनियोजित ढंग से किया जा रहा है ।
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