Friday, 14 April 2017

संस्कारों की पुण्य परंपरा

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=51मानव जाति की सुख-शान्ति एवं प्रगति की सर्वोपरि आवश्यकता का महत्व हमारे तत्त्वदर्शी पूर्वज, ऋषि-महर्षि भली प्रकार समझतेथे । अतएव इसके लिए उन्होने प्रबल प्रयत्न भी किये, अपने बहुमूल्य जीवनों को इसी आवश्यकता की पूर्ति के साधन विनिर्मित एवं प्रचलित करने में घुला दिया । उनकी इस पुण्य प्रक्रिया को संस्कृति का सृजन कहा जाय, तो उपयुक्त ही होगा । हमारा सारा धर्म-साहित्य- इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए लिखा गया है । योगाभ्यास, ईश्वर, उपासना, तपश्चर्या, इन्द्रिय-निग्रह, संयम, सदाचार,व्रत-उपवास, तीर्थयात्रा, देव-दर्शन, दान-पुण्य, कथा-प्रवचन,यज्ञ-अनुष्ठान आदि का जितना भर भी धर्म कलेवर हमें दृष्टि गोचर होता है उसके मूल में मात्र एक ही प्रयोजन सन्निहित है कि व्यक्ति अधिकाधिक निर्मल, उदार, सद्गुणी, संयमी एवं परमार्थ परायण बनता चला जाय । इसी स्थिति के लिए जिस स्तर की उच्च विचारणा अभीष्ट है उसका क्रमिक निर्माण उपरोक्त प्रकार की विचारणा एवं कार्य-पद्धति से सम्भव होता है । यह धर्म-प्रयोजन कर्मकाण्ड हमारी चेतना को उस स्तर पर विकसित करने का प्रयत्न करते हैं जिसे अपनाने पर जीवन अधिक पवित्र, उत्फुल्ल एवं लोकोपयोगी बन सके । धरती पर स्वर्ग अवतरित करने की प्रणाली-केवल शास्त्र रचना एवं धार्मिक विधि निषेधों का प्रचलन करने तक ही ऋषियों ने अपना कर्तव्य समाप्त नहीं समझा वरन् यह भी स्मरण रखा कि इस प्रेरणा को स्थिर एवं अग्रगामी रखने के लिए उन्हें निरन्तर कठोर श्रम भी करना होगा और अपनी शक्ति सामर्ध्य को उसी पुण्य प्रयोजन में खपा भी देना होगा । 

Buy online:

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=51




No comments:

Post a Comment