धन का सदुपयोग
गायत्री मंत्र का चौथा अक्षर वि हमको धन के सदुपयोग की शिक्षा
देता है-वित्त शक्तातु कर्तव्य उचिताभाव पूर्तयः । न तु शक्ला न या कार्य
दर्पोद्धात्य प्रदर्शनम् । । अर्थात- धन उचित अभावों की पूर्ति के लिए है,
उसके द्वारा अहंकार तथा अनुचित कार्य नहीं किए जाने चाहिए । धन का उपार्जन
केवल इसी दृष्टि से होना चाहिए कि उससे अपने तथा दूसरों के उचित अभावों की
पूर्ति हो । शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के विकास के लिए सांसारिक
उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए धन का उपयोग होना चाहिए और इसीलिए उसे
कमाना चाहिए । धन कमाने का उचित तरीका वह है जिसमें मनुष्य का पूरा
शारीरिकऔर मानसिक श्रम लगा हो जिसमें किसी दूसरे के हक का अपहरण न किया गया
हो, जिसमें कोई चोरी, छल, प्रपञ्च, अन्याय, दबाव आदि का प्रयोग न किया गया
हो । जिससे समाज और राष्ट्र का कोई अहित न होता हो ऐसी ही कमाई से
उपार्जित पैसा फलता-फूलता है और उससे मनुष्यकी सच्ची उन्नति होती है । जिस
प्रकार धन के उपार्जन में औचित्य का ध्यान रखने की आवश्यकता है, वैसे ही
उसे खर्च करने में, उपयोग में भी सावधानी बरतनी चाहिए । अपने तथा अपने
परिजनों के आवश्यक विकास के लिए धन का उपयोग करना ही कर्तव्य है । शानशौकत
दिखलाने अथवा दुर्व्यसनों की पूर्तिके लिए धन का अपव्यय करना मनुष्य की
अवनति अप्रतिष्ठा और दुर्दशाका कारण होता है ।
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