स्वर्ग-नरक की स्वसंचालित प्रक्रिया
यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है-जो जैसा बोता है,
वह वैसा काटता है । क्रिया की प्रतिक्रिया होती है । पैंडुलम एक ओर चलता
है तो लौटकर उसे फिर वापस अपनी जगह आना पड़ता है । गेंद को जहाँ फेंककर मारा
जाए वहाँ से लौटकर उसी स्थान पर आना चाहेगी, जहाँ से फेंकी गई थी ।
शब्दवेधी बाण की तरह भले-बुरे विचार अंतरिक्ष में चक्कर काटकर उसी मस्तिष्क
पर आ विराजते हैं, जहाँ से उन्हें छोड़ा गया है । कर्म के संबंध में भी यही
बात है । दूसरों के हित-अहित के लिए जो किया गया है, उसकी प्रतिक्रिया
कर्ता के ऊपर तो अनिवार्य रूप से बरसेगी जिसके लिए वह कर्म किया गया था,
उसे हानि या लाभ भले ही न हो । गेहूँ से गेहूँ उत्पन्न होता है और गाय अपनी
ही आकति-प्रकृति का बच्चा जनती है । कर्म के संबंध में भी यही बात है, वे
बंध्य नपुंसक नहीं होते । अपनी प्रतिक्रिया संतति उत्पन्न करते हैं । उनके
प्रतिफल निश्चित रूप से उत्पन्न होते हैं । यदि ऐसा न होता तो इस सृष्टि
में घोर अंधेर छाया हुआ दीखता, तब कोई कुछ भी कर गुजरता और प्रतिफल की
चिंता न करता ।
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