Tuesday, 14 February 2017

मरणोत्तर जीवन और उसकी सच्चाई

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=109घास-पात की तरह मनुष्य भी माता के पेट से जन्म लेता है,पेडू-पौधों की तरह बढ़ता है और पतझड़ के पीले पत्तों की तरहजरा-जीर्ण होकर मौत के मुँह में चला जाता है । देखने में तो मानवी सत्ता का यही आदि-अंत है । प्रत्यक्षवाद की सचाई वहीं तक सीमितहै, जहाँ तक इंद्रियों या उपकरणों से किसी पदार्थ को देखा-नापा जासके । इसलिए पदार्थ विज्ञानी जीवन का प्रारंभ व समाप्ति रासायनिक संयोगों एवं वियोगों के साथ जोड़ते हैं और कहते हैं कि मनुष्य एक चलता-फिरता पेड़-पादप भर है । लोक-परलोक उतना ही है जितना कि काया का अस्तित्व । मरण के साथ ही आत्मा अथवा कायासदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो जाती है । बात दार्शनिक प्रतिपादन या वैज्ञानिक विवेचन भर की होती तो उसे भी अन्यान्य उलझनों की तरह पहेली, बुझौवल समझा जासकता था और समय आने पर उसके सुलझने की प्रतीक्षा की जासकती थी । किंतु प्रसंग ऐसा है जिसका मानवी दृष्टिकोण औरसमाज के गठन, विधान और अनुशासन पर सीधा प्रभाव पड़ता है ।यदि जीवन का आदि- अंत-जन्म-मरण तक ही सीमित है, तो फिर इस अवधि में जिस भी प्रकार जितना भी मौज-मजा उड़ाया जा सकता हो, क्यों न उड़ाया जाए ? दुष्कृत्यों के फल से यदि चतुरता पूर्वक बचा जा सकता है, तो पीछे कभी उसका दंड भुगतना पड़ेगा, ऐसा क्यों सोचा जाए ? अनास्था की इस मनोदशा में पुण्य-परमार्थ का, स्नेह-सहयोग का भी कोई आधार नहीं रह जाता । 

 

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