सदाचरण और मर्यादा पालन
परमात्मा ने हर मनुष्य की अन्तरात्मा में एक मार्गदर्शक चेतना की
प्रतिष्ठा की है, जो उसे उचित कर्म करने की प्रेरणा देती एवं अनुचित करने
पर भर्त्सना करती रहती है ।। सदाचरण, कर्तव्यपालन के कार्य धर्म या पुण्य
कहलाते हैं, उनके करते ही तत्क्षण करने वाले को प्रसन्नता एवं शांति का
अनुभव होता है ।। इसके विपरीत यदि स्वेच्छाचार बरता गया है, धर्म मर्यादाओं
को तोड़ा गया है, स्वार्थ के लिए अनीति का आचरण किया गया है, तो अन्तरात्मा
में लज्जा, संकोच, पश्चात्ताप, भय और ग्लानि का भाव उत्पन्न होगा ।। भीतर
अशांति रहेगी और ऐसा लगेगा मानों अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कार रही है
।।
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