जीवन जीने की कला
बाइबिल कहती है, "मनुष्य ईश्वर की महानतम कृति है ।" किंतु इसके
विपरीत हम देखते हैं कि सामान्य से असामान्य बनना तो दूर, व्यक्ति साधारण
स्तर का भी नहीं रह पाता है । इसका मूल करण है अपनी सामर्थ्य का बोध न होना
। हनुमान को यदि अपनी सामर्थ्य का बोध रहा होता तो जाम्बवंत के उपदेश की
उन्हें आवश्यकता न पड़ती । राम का आदेश पाते ही वह चल पड़ते । जैसे ही सागर
किनारे साधारण से वानर हनुमान को अपनी आत्म-गरिमा का बोध हुआ, वह एक ही
छलांग में असंभव पुरुषार्थ करने में सफल हो गए । अंगारों पर रखी राख अग्नि
की तीव्रता को छुपाए रहती है । जैसे ही उसे हटाया जाता है, वह अपने मूल रूप
में देदीप्यमान्, तापयुक्त हो उठती है । सूर्य पर बादल छाए हों तो कुछ देर
के लिए वातावरण में ठंडक छा जाती है । बादलों के छँटते ही सूर्य का प्रकाश
व गर्मी उस क्षेत्र के हर भाग तक पहुँचने लगती है । अपना आपा भी ऐसा ही
प्रकाशवान्, जाज्वल्यमान् है । मात्र कषाय-कल्मषों ने, विस्मृति की माया
ने, जन्म-जन्मांतरों के संचित कुसंस्कारों ने उसकी इस आभा को ढँक रखा है ।
यदि इस मायाजाल का आवरण हटाया जा सके तो असामान्य स्थिति में पहुँच सकना
संभव है ।
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