Sunday, 19 February 2017

पवित्र जीवन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=771गायत्री मंत्र का बारहवाँ अक्षर ' व ' मनुष्य को पवित्र जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देता है-

व- वस नित्यं पवित्र: सन् बाह्याध्भ्यन्तरतस्तथा ।।

यत: पवित्रतायां हि राजतेऽतिप्रसनता ।।

अर्थात- 'मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिए क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है ।। '

पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता, शीतलता, शांति, निश्चितता, प्रतिष्ठा और सचाई छिपी रहती है ।। कूड़ा- करकट, मैल- विकार, पाप, गंदगी, दुर्गंध, सड़न, अव्यवस्था और घिचपिच से मनुष्य की आतंरिक निकृष्टता प्रकट होती है ।।

आलस्य और दरीद्र, पाप और पतन जहाँ रहते हैं, वहीं मलिनता या गंदगी का निवास रहता है ।। जो ऐसी प्रकृति के हैं, उनके वस्त्र, घर, सामान, शरीर, मन, व्यवहार, वचन, लेन- देन सबमें गंदगी और अव्यवस्था भरी रहती है ।। इसके विपरीत जहाँ चैतन्यता, जागस्कता, सुरुचि, सात्विकता होगी, वहाँ सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जाएगा।। सफाई, सादगी और सुव्यवस्था में ही सौंदर्य है, इसी को पवित्रता कहते है ।।

गंदे खाद से गुलाब के सुंदर फूल पैदा होते है, जिसे मलिनता को साफ करने में हिचक न होगी, वही सौंदर्य का सच्चा उपासक कहा जाएगा ।। मलिनता से घृणा होनी चाहिए, पर उसे हटाने या दूर करने में तत्परता होनी चाहिए ।। आलसी अथवा गंदगी की आदत वाले प्राय :: फुरसत न मिलने का बहाना करके अपनी कुरुचि पर परदा डाला करते हैं।।

पवित्रता एक आध्यात्मिक गुण है ।। आत्मा स्वभावत पवित्र और सुंदर है, इसलिए आत्मपरायण व्यक्ति के विचार, व्यवहार तथा वस्तुएँ भी सदा स्वच्छ एवं सुंदर रहते हैं ।। गंदगी उसे किसी भी रूप में नहीं सुहाती, गंदे वातावरण में उसकी साँस घुटती है, इसलिए वह सफाई के लिए दूसरों का आसरा नहीं टटोलता, अपनी समस्त वस्तुओं को स्वच्छ बनाने के लिए वह सबसे पहले अवकाश निकालता है ।। 

 

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