सभ्यता का शुभारंभ
आध्यात्मिक और भौतिक उभय पक्षीय प्रगति का बीज तत्व है- "सभ्यता"
।। यह बहिरंग है ।। शिष्टाचार के रूप में यही प्रकट होती है ।। शिष्टाचार
से कुछ ऊँची स्थिति है- सदाचार ।। सभ्यता के सूत्र समयानुसार जब अंत:
क्षेत्र में उतरते हैं, तो क्रमश: सदाचार और सुसंस्कार के रूप में विकसित
होते हैं ।।
सिद्धांत रूप में तो यह भी कहा जा सकता है कि सुसंस्कारिता को हृदयंगम करने
के उपरांत सदाचार एवं सभ्यता की रीति- नीति भी व्यवहार में दीखने लगती है,
परंतु प्रत्यक्ष अनुभव यह बतलाता है कि सुसंस्कारिता के प्रति उमंग पैदा
करने के लिए जन सामान्य को सभ्यता के बहिरंग सूत्रों को ही माध्यम बनाना
पड़ता है ।।
सभ्यता प्रत्यक्ष एवं दृश्यमान है ।। क्रिया से चेतना विकसित होती है ।।
इसी से संयम जैसे आध्यात्मिक निर्धारणों को अभ्यास में उतारा जाता है ।।
संस्कृति के सूत्रों के आधार पर आत्मनिर्माण करने वाला सांसारिक सहयोग और
दैवी अनुदानों का सच्चा अधिकारी बन जाता है ।। सभ्यता का अनुसरण करते- करते
साधक संस्कृति के भावनात्मक उच्चस्तर तक पहुँच जाता है ।।
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