व्यवस्था बुद्धि की गरिमा
मनुष्य को स्वतंत्र चिंतन स्वतंत्र आचरण की क्षमता प्राप्त है।
यह सुविधा किसी अन्य प्राणी को प्राप्त नहीं है। ऐसी दशा में उसका यह निजी
दायित्व बनता है कि अपने को स्वमेव नियति के अनुशासन में बाँधे रहें। संयम
इसी का नाम है। धर्मधारणा के आधार पर मनुष्य को अपना चिंतन, चरित्र,
व्यवहार, शालीनता के अनुबन्धों में बाँधे रहने के लिए कहा गया है।
प्रगति हेतु निर्धारित अनुबन्धों के चयन के लिए मनुष्य को विवेक बुद्धि
मिली है और उसके अनुरूप चलने चलाने के लिए व्यवस्था बुद्धि। पशु ढर्रे का
जीवन इसलिए जीते हैं कि उनमें व्यवस्था बुद्धि नहीं है। जो मनुष्य अपनी
व्यवस्था बुद्धि का विकास और उपयोग नहीं कर पाते, उन्हें भी पशुवत ढर्रे का
जीवन जीना पड़ता है।
शरीर के आहार-विहार, श्रम-विश्राम का व्यवस्थित क्रम चला सकने वाला आरोग्य
और शक्ति का लाभ पाता है। मन की शक्ति का व्यवस्थित उपयोग व्यक्ति को
महात्मा बना देता है। विचार शक्ति व्यवस्थित होने पर विचारक-मनीषी बनकर वह
अनेकों का भाग्यविधाता बनता है। श्रम और पदार्थ की व्यवस्था बना सकने वाले
फैक्टरियाँ बनाते-चलाते हैं। हर उत्कर्ष के पीछे व्यवस्था बुद्धि की
अनिवार्य भूमिका रहती ही है। मनुष्य मात्र से इसकी गरिमा समझने, इसे विकसित
और प्रयुक्त करने की अपेक्षा की जाती है।
मनुष्य साधारण प्राणियों के बीच रहते हुए उन्हीं के जैसा व्यवहार न अपना
ले, इसलिए तत्वदर्शियों ने उसके लिए अतिरिक्त प्रकाश-प्रेरणा का निर्धारण
किया है। इसी को आत्मबोध, दिशा निर्धारण एवं कर्तव्य पालन की दिशाधारा
अपनाने वाला, उत्कृष्टता बनाए रखने वाला, तत्वज्ञान कहा गया है। उसी को
अध्यात्म कहते हैं। धर्मधारणा भी यही है।
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