सुसंस्कृत बनें, समुन्नत बनें
अपना काम तो किसी तरह पशु भी चला लेते हैं ।। पेट भरने और प्रजनन
करने के इर्द- गिर्द ही उनकी सारी चेष्टाएँ नियोजित रहती हैं ।। मानव की
अपनी सामर्थ्य एवं प्राप्त अतिरिक्त विभूतियाँ भी यदि मात्र इसी सीमा तक
रहीं तो मनुष्य की विशेषता क्या रही ?? पशुओं से थोड़ा अधिक समुन्नत स्तर का
साधन- सुविधाओं से युक्त जीवनयापन कर लेना मानव जीवन की सार्थकता का
परिचायक नहीं है ।। सार्थक और सफल मनुष्य जीवन वह है जो अपने ही तक सीमित न
रहकर कुछ दूसरों के लिए- समाज, देश और संस्कृति के भी काम आए ।। जिन गुणों
के कारण अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य की श्रेष्ठता- वरिष्ठता
स्वीकार की जाती है, वे हैं- करुणा, दया, उदारता तथा सदाशयता ।। अंतःकरण की
इन विशेषताओं के कारण ही मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि माना जाता है ।।
बुद्धिमान होना एक बात है पर भाव- संवेदना से संपन्न होना सर्वथा दूसरी बात
है ।। जहाँ ये दोनों विशेषताएँ एक साथ परिलक्षित होती हैं व्यक्ति एवं
समाज दोनों ही की प्रगति का कारण बनती हैं ।। पर ऐसा होता कम ही है ।।
बुद्धि अंतःकरण की- सदाशयता की सहचरी कम ही बन पाती है ।। जहाँ बनती है,
मानवी व्यक्तित्व को सही अर्थों में सद्गुणों से विभूषित करती है, आलोकित
करती है ।। उस आलोक से कितनों को ही प्रेरणा और प्रकाश मिलता है ।। इसके
विपरीत भाव संवेदनाओं की दृष्टि से शुष्क बुद्धि संकीर्ण स्वार्थों में ही
लिपटी रहती है ।। अस्तु महत्त्व बुद्धिमता का नहीं उस सद्बुद्धि का है जो
सद्भावनाओं से अनुप्राणित हो ।। दूसरों के दुःख- दर्दों को देखकर जिस
अंतःकरण में करुणा उमड़ने लगे तथा उनके निवारण के लिए मन मचलने लगे, ऐसे
अंतःकरण से संपन्न व्यक्ति सचमुच ही वंदनीय हैं ।।
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